Wednesday 30 December 2015

कुछ बिखरी पंखुड़ियां.....!!! भाग-24

210.
जो तुम भी कह ना पाये,
वो मेरी हथेलियों पर रची,
मेहंदी ने कह दिया है...
पिया तुमसे बहुत प्यार करते है.
मेहंदी का रंग देख कर,
मेरी सहेलियों ने मुझसे कह दिया है..

211.
क्यों ना कुछ ऐसा लिख दूँ....
जिसे पढ़ कर तुम मुस्करा दो....
काश ऐसे शब्द मुझे मिल जाये...

212.
लगता है की जीवन यही है.....
 बस यही है.......एक सपना...और 
एक डर.....उस सपने के टूटने का...

213.
काफ़ी की चुस्कियों के साथ...
मेरे हाथों में तुम्हारे.
हाथों की गर्माहट का एहसास.
क्या खूब है.....सुबह की शुरुआत..

214.
क्या कहूँ.. कि अब डाकिए नही आते...
या यूँ कहूँ कि...
अब खत लिखे नही जाते...

215.
ना जाने वो क्या है.....
जिसे ढूंढते...
मैं भी खो गयी हूँ.....

216.
प्यार,एहसास,उम्मीद....
जीवन विश्वास...
कुछ यूँ तुम्हारे आस-पास...
इक खत में लिखूं...
क्या-क्या दिल की बात..

217.
कभी जब मुझे लगे कि,
तुम्हारा ये वक़्त मेरा नही,
तभी जो तुम कह दो मुझसे,
कि मेरी पुरी जिन्दगी तुम्हारी है...

218.
अपनी फुरसतो में जो,
मुझे याद किया तो क्या किया..
गर अपनी मशरूफियत में,
जो मेरे वक़्त निकाल ना पाये...

Tuesday 29 December 2015

इस साल को ना जाने दूँ.....!!!!

दिसम्बर जा रहा है,...
नए साल की आहट है...
फ़िजा में है शोर, जश्न है,....
पर मैं चुप हूँ,
इस इंतजार में कि...
तुम मुझे अपने साथ गुजरे साल,
तुम्हारे बीते पलों का,
तुम्हारी होटो पर सजाई..
हर ख़ुशी का..
तुम भी मुझसे कुछ कहोगे,
तुम्हारे वो दो शब्द सुनने के लिये,
मेरी धड़कनो में शोर है...
बेचैन कब से गुजरते हर पल,
हर सेकेंड को गिन रही है..
कभी खुशी से बादलो में उड़ रही हूँ,
तो कभी उदास हो कर बैठ जाती हूँ,
कि ये साल भी.....
इंतजार में ना गुजर जाये,
तुम सभी को तो बधाई दे दो,
बस मुझसे कहना रह जाये....
क्यों ना गुजरते हर लम्हे को,
मैं बांध कर रख लूँ....
जब तक तुम मुझसे,
वो दो शब्द ना कहो,
तब तक मैं...
इस साल को ना जाने दूँ.....!!!!

Thursday 24 December 2015

कैलेंडर के हर दिन का हिसाब लिख दूँ.....!!!


ये साल जा रहा है....
क्यों ना तुम्हारी मुस्कराटे लिख दूँ,
तीन सौ पैसठ दिन की,
सारी शिकायते लिख दूँ....
मैं मिनटों का...
अपना रूठना लिख दूँ,
सेकेंडो में...
तुम्हारा मनाना लिख दूँ,
तुमसे मिलने के उंगलियों पर..
गिने दिन लिख दूँ,
पहरो तुम्हारे इंतजार में...
गुजरे वो पलछिन लिख दूँ,
तारीखों में कैद.....
वो तुम्हारी यादे लिख दूँ,
हर पल जहन में मुस्कराती,
तुम्हारी वो बाते लिख दूँ...
वो सर्द अँधेरी रातो की सिसकिया,
याद में भीगी आँखे लिख दूँ,
वो रात भर जागती आँखो का,
सवेरा लिख दूँ,
क्यों ना कुछ दर्द,
तुम्हारा अपना लिख दूँ,
कुछ रातो को...
बिखरे सपने लिख दूँ,
कुछ् शामो में...
बुनते ख्वाब लिख दूँ,
ये साल जा रहा है क्यों ना,
कैलेंडर के हर दिन का हिसाब लिख दूँ...
फूलों की आयी बहार लिख दूँ,
पल में बिखरे पतझड़ लिख दूँ,
कदम चूमती कामयाबी लिख दूँ,
ठोकरों के संघर्ष लिख दूँ...
ये साल जा रहा है क्यों ना,
हर अर्थ और अनर्थ को बिसरा कर,
पुराने कैलेंडर को हटा कर,
फिर नया कैलेंडर पर,
नया इतिहास लिख दूँ,
ये साल जा रहा है क्यों ना,
कैलेंडर के हर दिन का हिसाब लिख दूँ.....!!!

Wednesday 23 December 2015

इक किताब बन जाऊँ...!!!

क्यूँ ना मैं...
इक किताब बन जाऊं,
तुम अपने हाथों में थामो मुझे,
अपनी उंगलियों से...
मेरे शब्दों को छु कर,
मुझे अपने जहन में....
शामिल कर लो...
क्यों ना मैं..
इक किताब बन जाऊँ,
मुझे तुम पढ़ लो समझ लो,
जब थक कर सो जाओ,
तो मैं तुम्हारे सीने से लग जाऊं.....
क्यों ना...
मैं इक किताब बन जाऊं....
कुछ पुराने ख़त..
कुछ सुखे फूल,
मुझमे कही छिपा दो..
मैं तुम्हारे एहसासों से
फिर इक बार महक जाऊं....
जिसके पन्नों पर....
तुम मेरे ख़्यालो में,
मेरा नाम लिख दो,
तुम्हारे गुजरे वक़्त की...
मैं हमराज़ बन जाऊं,..
क्यों ना मैं.....
इक किताब बन जाऊँ...
तुम मुझे छोड़ कर जाना भी चाहो,
क्यों ना इक किताब बन कर,
तुम्हारे पास रह जाऊँ....!!!

Saturday 12 December 2015

मैं इस साल,हर सांस में तुम्हे जीती रही...

कितना कुछ लिखा....पढ़ा है...
मैंने इस साल में.......
कभी तुम्हारी परछाई बनी रही,
कभी देर तक बैठ कर तुमसे बाते की,
कभी-कभी तो...
मैं तुम्हारी जिंदगी में...
कही थी ही नही,
कभी इजहार में,
तुम्हे ढेरों खत लिखे,.
तो कभी आसान नही लगा...
तुमको लिखना....
कभी तुम्हारी उपलब्धियां,
मैं बनती रही,
तो कभी तुम्हारी मुस्कराहटों को,
लिखती रही....
तो कभी तुम्हारे इंतजार में,
ख़त लिखती रही...
कभी तुम में सिमटती रही जिंदगी,
कभी अपना लिखा तुमको सुनाती रही,
कभी शब्द ही नही मिले,
कुछ कहने को,...
तो कभी शिकायते बहुत हो गयी तुमसे,
कभी इक शाम,इक साथ तुम्हे देती रही,
तो कभी तुम्हारी मजबूरिया समझती रही,
कभी सागर का खारापन चखती रही,
तो कभी साथ तुम्हारे तारों को गिनती रही,
कभी उसी घाट पर जा कर,
तुम्हे ख़त लिखती रही,
कभी सावन में भीगते हुए,
तुम्हे दिल की सारी बाते कहती रही,
कभी तुम्हारी राधा बनी,
कभी कोई डायरी,
तो कभी तुम्हारे लिये किताब बनती रही,
कभी तुम ही तुम थे,
तुम्हारी ही इबादत करती रही,
तुम्हारे लिये श्रृंगार करती रही,
तो कभी तुम्हारे साथ,
उन दो लम्हों में उलझी रही,
कभी उसी खामोश सी शाम में,
तुम्हारा इंतजार करती रही,
तो कभी सुकून की तलाश करती रही,
कभी प्रेम को अपने
मंदिर सा कहती रही,
तो कभी बेचैन हो तुमको ढूंढती रही,
कभी तुमसे मिल कर,
पिया सी होती रही,
कभी तुममे कुछ नया ढूंढ़ कर,
हर बार कुछ लिखती रही,
कभी इक दिन दे कर,
फिर से अपने प्यार को जिन्दा करती रही....
कभी उसी चाँद की रात के लिये,
जिंदगी से इक दिन मांगती रही,
कभी तुम्हारे हर सवाल का जवाब,
मैं बनती रही,
तो कभी मैं अग्नि परीक्षा देती रही,
कभी तुम्हारी देहरी से,
तुम्हे बिना कुछ सुनाये लौटती रही,
तो कभी पहरो खिड़की से,
चाँद को देखती रही..
कभी तुम जैसी बनती रही,
तो कभी यूँ ही बेतरतीब ख्यालो को,
यूँ लिखती रही.....
कितना कुछ लिखा....पढ़ा है...
मैंने इस साल में.......
मैं इस साल तुम्हे,
हर सांस में तुम्हे जीती रही...!!!

Monday 7 December 2015

मुझमें तुम्हे ही पायेगा....!!!

अब तो मुझे जो भी देखेगा,
मुझमे तुम्हे ही पायेगा...
मेरी मांग के सिंदूर में हो तुम...
मेरे माथे की बिंदियां में हो तुम..
मेरी चूड़ियों की खनक में हो तुम...
मेरी पयाल की झंकार में हो तुम..
अब कहाँ....
मेरा प्यार जग से छिप पायेगा..
अब तो मुझे जो भी देखेगा..
मुझमें तुम्हे ही पायेगा....
अभी तक जो मेरी झुकी पलकों था,
जो मेरे होंठो की..
छिपी सी मुस्कान में था,
वो चेहरा मेरी आँखों में,
सभी को दिख जायेगा..
अब कहाँ....
मेरा प्यार जग से छिप पायेगा..
अब तो मुझे जो भी देखेगा..
मुझमें तुम्हे ही पायेगा....
अभी तक जो...
मेरी कवितायों में था कही,
जो छिपा था...मेरी गुनगुनाती धुनों में,
वो गीत अब लब्ज़ों में...
सभी के लबो पर गुनगुनाया जायेगा..
अब कहाँ....
मेरे प्यार जग से छिप पायेगा..
अब तो मुझे जो भी देखेगा..
मुझमें तुम्हे ही पायेगा....!!!

Wednesday 2 December 2015

मैं कभी-कभी तुम जैसी हो जाऊं...!!!

ना जाने क्यों कभी-कभी,
तुम बहुत बुरे से लगते हो,
ना जाने क्यों कभी-कभी,
तुम पर बिल्कुल प्यार नही आता है...
ना जाने क्यों कभी-कभी,
तुम्हे याद करके भी..
याद करने को जी नही चाहता है...
ना जाने क्यों कभी-कभी,
तुम्हारी हर मजबूरी को समझ कर भी,
समझने को जी नही चाहता...
ना जाने क्यों कभी-कभी,
मेरा समझदार होना भी,
अच्छा नही लगता है..
ना जाने क्यों कभी-कभी,
सोचती हूँ तुमसे दिल की,
हर शिकायत कह दूँ...
तुमसे लड़ लूँ.....झगड़ लूँ..
तुमसे रूठ जाऊं...
ना जाने क्यों कभी-कभी,
लगता है कुछ देर ही सही,
मैं तुम जैसी ही बन जाऊं,
बिल्कुल बेपरवाह सी..
गर कुछ खत्म होता है,
तो हो जाये इससे मुझे क्या,
मैं भी जिद्दी हो जाऊं...
ना जाने क्यों लगता है..
मैं कभी-कभी तुम जैसी हो जाऊं...!!!

Tuesday 1 December 2015

बिखरी है मेरी कविताएं...!!!

यूं ही बेतरतीब ख़्यालो सी,
बिखरी है मेरी कविताये....
जब जैसा ख्याल आया,
बस वैसे ही हर मोड़ पर,
मेरे ज़हन से पन्नों पर उतरी है..
मेरी कविताये..दो पल,दो शब्द..
दो लाइनों में..
पुरी जिंदगी सी दिखती है,
मेरी कविताये...
ख़्यालो के आसमानों को छुती,
तो कभी उदास शब्दों में,
जमी पर गिरती है..
मेरी कविताये...
मेरे साथ टूटती,
बिखरती है...
तो कभी उम्मीद बन कर,
अंधेरो में जुगनू की तरह,
चमकती है...
मेरी कविताये....
दर्द मेरा कहती है,
तो कभी होंठो पर,
किसी के मुस्कराती है,
मेरी कविताये..
जब कभी बेगानी सी,
दिखती है मुझे,
तो कभी किसी की अपनी,
कहानी सुनाती है...
मेरी कविताये...
मेरे राज तो छुपा लेती है,
तो कभी हर किसी का,
हाल-ए-दिल बताती है..
मेरी कविताये...
किसी का इज़हार जो बताती है..
तो कभी इन्कार भी जताती है,
मेरी कविताये..
किसी की चूड़ियों की खनक,
पर खनकती है,
तो किसी शरारती आँखों के,
इशारे भी बताती है..
मेरी कविताये...
लिखती तो मैं हूँ,
पर हर किसी के लबो पर,
गुनगुनाती है...
मेरी कविताये.....!!!

Monday 30 November 2015

मैं जिंदगी से वही इक दिन मांगता हूँ...

आज यूँ ही जिंदगी के सफ़र पर,
तुम्हे छोड़ कर जाते हुऐ..
ये दिल ना जाने क्यों सिर्फ,
इक दिन जिंदगी से मांग रहा है...
वही इक दिन जो मैं बरसो से,
तुम्हारे साथ जीना चाहता था,
वही इक दिन जिंदगी से मांगता हूँ...
जो मैने तुम्हारे लिये संजो कर रखा था,
तुम्हारे साथ जीना चाहता था..
आज तुम्हे छोड़ कर जाते हुऐ,
मैं जिंदगी से वही इक दिन मांगता हूँ...
मैं जानता था...
तुम मुझसे बहुत कुछ सुनना चाहती थी,
सच कहूँ तो...
मुझे भी तुमसे बहुत कुछ कहना था,
पर जिंदगी की आपाधापी में,
मैं वो इक दिन हो तुम्हारे लिये था,
मैं तुम्हे नही दे पाया..
आज तुम्हे छोड़ कर जाते हुए,
मैं जिंदगी से वही इक दिन मांगता हूँ...
जब से तुम मेरी जिंदगी में आयी,
मेरे सपनो को,मेरी खुशियाँ ही,
तुम्हारी अपनी हो गयी,
मैं अपने लिये मेरे अपनों में,
ये सोचना ही भूल गया...कि
तुम्हारे सपनो को पूरा करने का,
भी मेरा वादा था...
मेरी जिंदगी को सवांरने-सजाने में,
तुम्हे अपनी पूरी जिंदगी दे दी..
और मैं तुम्हारा इक दिन भी नही दे पाया...
मैं तुम्हे बताना चाहता था,...कि
तुम किस साड़ी में बहुत खूबसूरत लगती हो...
मुझे ये बताना था कि..
मेरे लिये तुमसे ज्यादा,
कोई भी खूबसूरत नही है...
मुझे बताना था कि जब तक
तुम्हे ना देख लूँ,
मेरे दिन की शुरुवात ही नही होती है...
मुझे बताना था..
तुम्हे कि मैं आज जो कुछ भी हूँ,
तुम्हारी वजह से हूँ...
मुझे बताना था कि..प्यार-समर्पण
मैंने तुमसे ही सीखा...
ऐसी ही बहुत सी बाते थी,
जो तुमसे कहनी थी...उस इक दिन...
कि आज तुम्हे छोड़ कर जाते हुऐ,
मैं कितनी शिद्दत से जिंदगी से,
वही इक दिन मांगता हूँ...!!!

Sunday 29 November 2015

याद है वो तुम्हे चाँद की रात...

याद है तुम्हे वो चाँद की रात,
दूर तक थी चाँदनी...
अपने चाँद के साथ...
चांदनी की स्याह रौशनी में,
मैं बैठी थी थाम कर,
अपने हाथो में लेकर तुम्हारा हाथ...
याद है तुम्हे वो चांदनी रात...
तुम्हारी शरारती बातो की रात,
मेरी शरमाती आखों की रात,
तुम्हारी उँगलियों में उलझती,
मेरी उँगलियों की अधूरी बात..
याद है तुम्हे वो चाँद की रात...
मेरे बेतरतीब बिखरे हुए,
ख्वाबो की रात..
तुम्हारे साथ सिमटे पलों,
लम्हों की रात..,
वो सिर्फ महसूस करने वाले,
एहसासों की रात...
याद है वो तुम्हे चाँद की रात...!!!

Tuesday 24 November 2015

इक नयी अग्नि परीक्षा देती रही...

तुम्हारे हर सवाल का जवाब,
मैं बनती रही...
तुम मुझे आजमाते रहे,
मैं हर बार...
इक नयी अग्नि परीक्षा देती रही...
तुमसे प्यार करना,तुम्हारा साथ देना,
तुमको समझना...तुम्हारी उम्मीदे,
तुम्हारे सपने..
तुम्हारी हर बात पर..
खरी उतरती रही.......मैं हर बार...
इक नयी अग्नि परीक्षा देती रही...
क्यों मेरी चाहते,
मेरी खुशियां...तुम्हारी नही थी...
क्यों रिश्ते सिर्फ मेरे ही रहे,
हमारे नही हुए,
क्यों तुम्हारी मंजिले,
सिर्फ तुम्हारी थी...
क्यों मैं तुम्हारे साथ नही,
हर बार...तुम्हारे रास्तो पर,
तुम्हारे पीछे चलती रही है...मैं हर बार...
इक नयी अग्नि परीक्षा देती रही...!!!

कविताये कुछ नही कहती....

कभी-कभी कुछ कविताये,
कुछ नही कहती है...
ख़ामोश चुप सी बेतरतीब,
बिखरी सी रहती है...
कुछ कविताये कभी,
कुछ नही कहती है..
कभी-कभी कुछ कविताये,
जिन्दगी की किताब सी होती है...
पढ़ते तो सभी है,..
सभी के समझ के परे होती है...
ख़ामोश चुप सी बेतरतीब,
बिखरी सी रहती है...
कुछ कविताये कभी,
कुछ नही कहती है....!!!

Thursday 12 November 2015

कुछ बिखरी पंखुड़ियां.....!!! भाग-23

203.
अंधेरो से कह दो कि..
तुम्हारा आंगन छोड़ दे कि,
मैंने पंक्तियाँ दीयों की लगा दी है....
गमो से कह दो कि,
तुम्हारी देहरी पर ना आये,
कि रौशनी की खुशियाँ सजा दी है....

204.
हाथों में रची महेंदी से...
सब को पता चल जाता है...
कि तुम भी मुझे प्यार करते हो...
बिल्कुल मेरी ही तरह...

205.
मैं तब और भी अकेली हो जाती हूँ..
इक तुम्हारे मिलने से पहले,
इक तुम्हारे मिलने के बाद...

206.
तुम्हारे बिना...जिन्दगी की उलझनों में उलझ कर,
थक कर नींद तो आ जाती है...
वरना इक अरसा गुजरा है...
सुकून से सोये हुये...

207.

फिर इक बार.....
मैं शब्दों को गढ़ लूँ,
कि शब्द अब मिलते नही मुझे...
तुम जो पढ़ लो इक बार,
तो....मैं फिर कविता बन जाऊं.

208.
मेरा तुम्हारी जिन्दगी में होना,
तुम्हारे मन की बात होती है...
तुम्हारा मन है तो मैं हूँ...
मन नही तो मैं नही हूँ...
जब कि...
तुम्हारा मेरी जिन्दगी में होना,
जिन्दगी में साँसों का होना होता है..
तुम हो तो जिन्दगी है,
तुम नही तो जिन्दगी भी नही...

209.
कभी सोचती हूँ कि क्यूँ ना,
इक शाम तुम्हारे नाम कर दूँ....
इक शाम जो तुम्हारे साथ,
गुजारी तो महसूस किया....
क्यूँ ना...
इक जिन्दगी तुम्हारे नाम कर दूँ....


Friday 6 November 2015

तुम्हारी देहरी से लौट आई हूँ...!!!

मैं अक्सर तुम तक जा कर,
तुम्हारी देहरी से लौट आई हूँ,
कल रात भी हवाओं के साथ,
तुम्हारी पर गयी थी,
देखा की तुम मेरे ही,
ख्वाबो में सो रहे थे,
सोचा सांकल खटखटा आऊं,
तुमको जगा कर कहूँ,
कि तुम्हारे ख्वाबो से निकल कर,
तुम्हारे पास आई हूँ...
फिर सोचा कि...
अपनी चूड़ियों की खनक से,
तुमको जगाऊं,
तुम्हे अपनी रंग-बिरंगी,
चूड़ियाँ दिखाऊं...
फिर सोचा क्यों ना,
चुपके से तुम्हारे कानो में,
वो कह दूँ...जो तुम...
मुझसे अक्सर सुनना चाहते थे....
फिर सोचा कि क्यों ना,
तुम्हारी साँसों में घुल जाऊं..
खुशबू बन कर,
तुम्हारे दिल में बिखर जाऊं...
पर डर था..कि
कही तुमने मुझे पहचाना नही तो...
भ्रम है...मुझे कि
तुम मेरे ख्वाबो में ही सो रहे हो..
कही वो टूट गया तो...
बस यूँ ही...
मैं अक्सर तुम तक जा कर,
तुम्हारी देहरी से लौट आई हूँ,..!!!

Tuesday 3 November 2015

सिर्फ तुम्हारे लिये लिखती हूँ....!!!

जब भी कभी मैं अपनी प्रकाशित,
कविताओं को देखती हूँ...
तो मन में इक अजीब सी
हलचल सी होती है...
सोचती हूँ कि..
कभी जो पंक्तिया इक कागज में,
लिख कर तुम्हे छुपा कर,
तुम्हे दिया करती थी....
आज वो अखबारों के पेज में होती है...
सोचती हूँ कि,
क्या आज भी...ये कविताये,
तुम तक पहुँचती होगी....
क्या कभी सवेरे-सवेरे,
चाय की चुस्कियों के साथ,
जब तुम अखबार के पन्ने पलटते-पलटते,
यूँ ही अचानक मुझ पर,
नजर पड़ जाती होगी...
कुछ देर जैसे,
सब रुक सा गया होगा,
और तुमने इक ही सांस में,
मेरी पूरी कविता पढ़ ली होगी...
वैसे ही मुस्कराते हुए कहते होगे...
कि बिल्कुल पागल है...ये लड़की...
ना जाने क्या-क्या लिखती रहती है....
मुस्कराते होगे...
मैं जानती हूँ कि,
तुम हमेसा की तरह,
आज भी मेरी तारीफ नही करोगे...
पर सच कहूँ...
तुम्हारा पागल कहना ही..
तो यूँ लगता है...कि
मेरा लिखना सफल हो गया....
क्यों की....मैं आज भी,
सिर्फ तुम्हारे लिये ही लिखती हूँ...!!!

Sunday 1 November 2015

चाँद को मैं खिड़की से देखती रही....!!!

रात चाँद को..
मैं खिड़की से देखती रही....
इक यही तो है,
जो हम दोनों को जोड़ता है..
इक दुसरे से...
तुम भी यूँ ही देखते होगे,
चाँद को,
मैं चाँद में तुम्हारी छवि देखती रही...
रात चाँद को..
मैं खिड़की से देखती रही....
रात चाँद की चाँदनी में,
तुम्हारे ख्यालों को बुनती रही,
तुम्हारे सीने पर सर रख कर,
तुम्हारी धड़कनो को सुन कर,
गीत कोई लिखती रही...
रात चाँद को..
मैं खिड़की से देखती रही....
मैं जहाँ भी चलु,
चाँद मेरे साथ-साथ चलता रहा...
चाँद मुझे ढूंढता रहा,
मैं चाँद से लुका-छिपी खेलती रही...
रात चाँद को..
मैं खिड़की से देखती रही....
कभी चाँद के बहाने,
तुम भी आ जाना,
हर रोज मैं ये संदेसा...
तुम्हे भिजवाती रही...
कि मना ही लेगा,
इक दिन चाँद तुम्हे...
मेरे पास आने को..
मैं हर रोज चाँद को,
अपनी कहानी सुनाती रही...
रात चाँद को..
मैं खिड़की से देखती रही....!!!

Wednesday 28 October 2015

मैं तो पिया सी हो गयी....!!!

करके मैं साजों श्रृंगार...
माथे पर उनके नाम का सिंदुर,
गले में उनकी बाहों का हार...
मैं आईना बना कर,
उनकी आखों में खो गयी..
रे सखी...
मैं तो पिया सी हो गयी....
हाथों में रचा कर,
उनके नाम की महंदी,
होटों पर सजा कर,
उनके नाम की लाली...
मैं तो सावरें की छवि में खो गयी,
रे सखी...
मैं तो पिया सी हो गयी....
पहन कर पैरो में पयाल..
की छम-छम ,
पहन तुम्हारे नाम के कंगन,
मैं रंग बिरँगी चूड़ियों में खो गयी...
रे सखी....
मैं तो पिया सी हो गयी....
कर सारे सोलह श्रृंगार,
कि अब दिख जाये चाँद,
लो मैं उनके लिए तैयार हो गयी,
कह दूंगी...चाँद से भी आज कि,
मैं पिया सी हो गयी..!!!

Thursday 22 October 2015

मैं फिर कविता बन जाऊं...!!!

फिर इक बार..
तुम्हारे काँधे पर सर रख,
कर सो जाऊं...
बहुत थक गयी हूँ,
जिन्दगी की जद्दोजहद से,
कि अब और नही...
तुम जो सम्हाल लो..
तो सुकून पाऊं....
फिर इक बार...
तुम्हारी उँगली थाम कर चलना सीखूं,
अब मंजिल मुझे दिखती नही..
तुम जो चलो साथ मेरे,
तो मैं मंजिल पाऊं...
फिर इक बार...
मैं तुम्हारा आईना बन जाऊं...
कि मैं अब खुद को देखती नही हूँ...
तुम में खुद को देख लूँ,
तो फिर मैं सवंर जाऊं...
फिर इक बार.....
मैं शब्दों को गढ़ लूँ,
कि शब्द अब मिलते नही मुझे...
तुम जो पढ़ लो इक बार,
तो....मैं फिर कविता बन जाऊं...!!!

Tuesday 20 October 2015

तुममे नया ढूंढ ही लेती हूँ...!!!

इक कुम्हार की तरह,
हर रोज गढ़ती हूँ..
तुम्हारे ख्यालो के शब्दों को...
और इक नयी अकृति देती हूँ...
भले इक वक़्त गुजर गया हो,
हमारे रिश्ते को...
मैं कुछ ना कुछ,
तुममे नया ढूंढ ही लेती हूँ...
मैं हर रोज...
तुम्हारी आँखों को पढ़ती हूँ,
खामोश रहती है...पर,
मैं सारे ऱाज समझती हूँ...
भले ही इक वक़्त के साथ,
कुछ कमजोर हो गयी हो,
मेरी नजर पर,
मैं तुम्हारी आँखों में...
कुछ धुंधला सा पढ़ ही लेती हूँ....
मैं हर पल तुम्हारे साथ,
गुजरे लम्हों को संजोती हूँ,
वक़्त तेज और तेज बढ़ता ही जाता है,
फिर भी...मैं कलाई पर,
घड़ी की तरह बांध लेती हूँ..
भले ही..
इक अरसा गुजर गया हो,
उन लम्हों का..
पर मैं तुम्हारे साथ...
इक-इक लम्हे में,
कई जिन्दगी जी लेती हूँ...
इक कुम्हार की तरह,
हर रोज गढ़ती हूँ..
तुम्हारे ख्यालो के शब्दों को...
और इक नयी अकृति देती हूँ...
भले इक वक़्त गुजर गया हो,
हमारे रिश्ते को...
मैं कुछ ना कुछ,
तुममे नया ढूंढ ही लेती हूँ...!!!

Wednesday 14 October 2015

कुछ बिखरी पंखुड़ियां.....!!! भाग-22

196.
तुम्हारी याद आयी तो,
यूँ लगा कुछ टूटता है मन में..
तुम बिन जैसे बरसती बारिश के साथ भी...
प्यासा हो मेरा मन...

197.
लोग मुझे मेरी कविताओं से जाने..
मेरे पढ़ने के अंदाज से नही...
तुम तो मुझे पढ़ ही लोगे...
अपने अंदाज में...

198.
कविता कहाँ किसी की होती है..
जो जैसे पढ़ता है..
इसको ये तो वैसे ही..
उसी की होती है.....

199.
अब मेरी तमन्ना है ये..
गर जन्म मुझे मिले....
तू श्याम बने मेरा..
मैं राधा बनू तेरी...

200.
दो ही वजह है मेरे लिखने की....
तुम्हारे लिये ही मैं लिखती हूँ...
और तुम ही हो जो..
मुझसे लिखवा लेते हो....

201.
अक्सर कुछ लोग बड़े मौके 
के इन्तजार में...
छोटे-छोटे लम्हे खो देते है..

202.
मैं अकेले कुछ लिख नही सकती, 
पर हाँ...तुम कुछ अधुरा सा तो लिखना...
यक़ीनन...
मैं उसे पूरा कर दूंगी...


कुछ बिखरी पंखुड़ियां.....!!! भाग-21

186.
बहुत मुमकिन है...
मैं खुद को खो दूँ...
तुम्हे पाने के बाद.....

187.
मैं चाहती हूँ...
मैं वक़्त बन जाऊं...
तुम्हारे पास वक़्त नही...
और मैं तुम्हारी मुट्ठी से,
रेत की तरह फिसल जाऊं...

188.
इक टूटन सी होती है..
ना दर्द ठहरता है...
सिर्फ घड़ी की सुइयां चलती है..
ना वक़्त गुजरता है...

189.
कभी कुछ ऐसा भी होता है...
जो लिखा नही जा सकता....

190.
होटों से लब्जों को कलम में...
उतार लेती हूँ....
बस यू ही लब्ज़-दर-लब्ज़,
कविता सवांर देती हूँ....

191.
क्यों ना आज...
मैं कुछ ऐसा लिख दूँ...
जो तुमने महसूस..
भी ना किया हो...


192.
यह फर्क था तुम में..
और मुझमें....
तुम मुझे...
दुनियादारी समझाते रहे...और
मुझे सिर्फ...
प्यार ही समझ आता था...

193.
मैं तुम्हारे खतो के जवाब...
के इंतजार में...
हर रोज इक नया...
खत लिखती हूँ...

194.
ठंडी हवाये है...
प्यार सा मौसम है...
बारिश है...बुँदे है....
तुम हो...मैं हूँ...
मैं हूँ..तुम हो..
मुझमे तुम हो..तुममे मैं हूँ...

195.
इन्टरनेट और मोबाइल की दुनिया में..भी...
मैं तुम्हे हर रोज खत लिखती हूँ...
तुम्हे भेज दूंगी इक दिन...
जो मैं कह नही पाती हूँ तुमसे...
खतो में वो सब लिखती हूँ....

Monday 12 October 2015

प्यार यूँ ही जिन्दा रहे...!!!

मैं चाहती हूँ कि ...
जब तुम साठ के हो...
और रहूँ पच्पन की..
तब भी हमारे बीच,
प्यार यूँ ही जिन्दा रहे...
तब भी तुम मुझसे,
कुछ सुनने को बेताब रहो...
मैं कुछ तुमसे कहने,
को बेचैन रहूँ...
प्यार यूँ ही जिन्दा रहे...
गुजरते वक़्त और,
बढ़ती उम्र के साथ..
प्यार और भी गहरा हो जाये...
तब भी जब कभी,
तुम्हारी नजरे..मेरी नजरो से,
यूँ टकराये तो...
हजारो अफ़साने कह जाये...
नजरो का वो..
पहला प्यार जिन्दा रहे....
तब भी...
कुछ याद रहे ना रहे,
मेरी चूड़ियों की खनक से ही,
तुम्हारी नींद खुले,...
तब भी तुम्हारी उँगलियाँ,
जो मेरी उंगलियो में उलझे,
तो कुछ अनछुआ सा कह जाये...
हमारी छुअन का....
वो एहसास जिन्दा रहे....
तब भी कोई और मिठास,
जुबां पर चढ़ ना पाये...
जो मेरे हाथो की,
बनायीं चाय में हो...
उम्र की दूरियां हो जाये,
सफ़र में कही शायद,
मैं ओझल हो जाऊं...
पर जब कोई चाय की प्याली,
तुम्हारे होटों को छुए,
तो हर बार मेरी वो पहली सी,
मिठास तुमको छू जाये....
वक्त के गहराते प्यार की,
वो मिठास जिन्दा रहे...
मैं चाहती हूँ कि ...
जब तुम साठ के हो...
और रहूँ पच्पन की..
तब भी हमारे बीच,
प्यार यूँ ही जिन्दा रहे...!!!

Saturday 10 October 2015

इक शाम..तुम्हारे साथ हो...!!!

बस यूँ ही....इक शाम..
तुम्हारे साथ हो...
जो ख्यालो में भी ना हो,
ऐसी कोई बात हो...
बस यूँ ही..इक शाम...
तुम्हारे साथ हो...
तुम कहो कुछ...
कुछ कहूँ मैं...
सभी शिकायते मेरी हो,
सभी नादानियाँ मेरी हो...
मैं रूठती रहूँ.....
तुम मुझे मानते रहो..
इक शाम सभी गुस्ताखियाँ,
मेरी माफ़ हो..
बस यूँ ही...इक शाम...
तुम्हारे साथ हो...
तुम्हारे हाथो में...
मेरा हाथ हो,
खामोशियों की हमारे बीच बात हो..
इक शाम मेरी मुस्कराहट..
तुम्हारे हर सवाल का जवाब हो...
बस यूँ ही....इक शाम..
तुम्हारे साथ हो...
इक शाम मेरी धड़कनो की,
तुम्हारी धड़कनो से बात हो...
ना लबों को हो इजाज़त,
कुछ कहने की..
सिर्फ इशारो में...
जाहिर जज्बात हो..
बस यूँ ही....इक शाम..
तुम्हारे साथ हो...!!!

Saturday 26 September 2015

किसी मंदिर सा था...हमारा प्रेम...!!!

किसी मंदिर सा था...
हमारा प्रेम...
अखंड था...
मंदिर में स्थापित...
मूरत सा था..हमारा प्रेम...
धुनों में गूंजता था...
मंदिर में बजती...
घंटियों सा था..हमारा प्रेम...
भावो को वयक्त करता था..
मंदिर में इक सुरों में गाता...
आरती सा था हमारा प्रेम...
पहरों में इन्तजार था..
मंदिर में लम्बी कतार में..
एकटक दर्शन को...
जोहता सा था हमारा प्रेम...
निश्छल निर्दोष था..
मंदिर में खुद को..
समर्पर्ण करता सा था हमारा प्रेम...
शाश्वत जीत सा था..
मंदिर में मांगी...
दुआ सा था हमारा प्रेम...
किसी मंदिर सा था...
हमारा प्रेम...!!!

Tuesday 22 September 2015

जब से तुमसे मिली...मैं प्रेम को लिखने लगी...!!!

जब से तुमसे मिली...
मैं प्रेम को लिखने लगी...
जब तुम्हारी आखों की,
गहराईयों में उतरी तो...
अंतहीन..अद्रश्य...
प्रेम को मैं लिखने लगी...
जब तुम्हारे स्पर्श को,
महसूस किया..
अनछुए-अनकहे...
प्रेम को लिखने लगी...
जब से तुम्हारी खुसबू बन कर,
तुम्हारी साँसों में...
घुलने लगी..
हवाओं में भी...
प्रेम की धड़कने सुनने लगी..
कि धड़कने...
प्रेम की लिखने लगी...
जब से तुम्हारी....
खामोशियों का हिस्सा मैं बनी..
प्रेम की कहानी-किस्से..
मैं लिखने लगी...
मैं प्रेम को लिखने लगी...
जब से तुम्हारी करवटो की,
बेचैनी मैं बनी...
तन्हाईया प्रेम की..
मैं लिखने लगी...
जब से तुम्हारी उदासियों को,
समझने लगी...
जुबां....प्रेम की...
मैं लिखने लगी...
जब से तुम्हारे साथ...
तय सफ़र करने लगी..
मंजिले...प्रेम की....
मैं लिखने लगी....
जब से तुम पर..
विश्वास करने लगी..
प्रेम को...मैं शाश्वत लिखने लगी....
जब से तुमसे मिली...
मैं प्रेम ही प्रेम लिखने लगी....!!!

Friday 18 September 2015

तलाशते है फिर..मेरे शब्द तुम्हे...!!!

तलाशते है फिर..
मेरे शब्द तुम्हे...
तुम नही हो,तो
कुछ लिखते ही नही...
यूँ कि हर बार शब्द पिरोते थे,
सिर्फ तुम्हे....
कि तलाशते फिर..
मेरे शब्द तुम्हे....
ये तो लिखते थे..
तुम्हारे चेहेरे की उदासियाँ,
तुम्हारी आखों की गहराइयाँ...
कि तुम नही हो तो,
शब्द पहचानते नही मेरी भी..
परछाईयाँ....कि
इन शब्दों को..
तुम्हारी खामोशियों को...
समझने का हुनर था..
जिसे तुम लब्ज़ नही दे पाते थे,
वो शब्द बन कर...
कागज पर उतरते थे...
ये शब्द ही तो है..
जो तुम्हे लिख कर..
मेरे दिल में उतरते जाते है...
तलाशते है फिर..
मेरे शब्द तुम्हे...!!!

Tuesday 1 September 2015

कुछ बिखरी पंखुड़ियां.....!!! भाग-20

176-
ये मौसम कह रहा है...
कही तो खूब बरसा है ये बादल..
कोई भीग रहा है,तर-बतर....
तो कोई इक बूंद को भी तरस रहा है आज कल...

177-
रात किसी के ख्वाब को,
आखों में भर कर,
जागती रही मेरी आखें....
मैं खामोश थी,
ना जाने कितने ही, 
सवालो का जवाब..
मांगती रही तुम्हारी आखें...

178-
नही जानती कि सपनो का राजकुमार कैसा होता है...
नही पता कि सपनो का राजकुमार कैसा होगा...
यक़ीनन कोई आम चेहरा ही...
सपनो के राजकुमार जैसा होगा....

179-
आ चुपके से तुम्हारे कानो में कुछ ऐसा बोल दूँ....
कि तुम मुस्कराते हुए अपनी आँखे खोल दो...

180-
डर है कि ये बारिश...
मेरा सब कुछ बहा न ले जाये.....

181-
बारिश की बुँदे.....और
तुम्हारी आखों से बरसता हुआ प्यार,
कैसे कहूँ किसने.....मुझे ज्यादा भिगोया है....

182-
मैं तुम्हे लिखती रही...
अपनी कविताओं में....
और तुम हमेसा रहे..
मेरी अलिखित पंक्तियों में.....

183-
बहुत खास है वो नज़र.....
जिन नजरो को मैं खास लगती हूँ......

184-
मैं इसलिये नही लिखती कि
मुझे लिखना अच्छा लगता है...
मैं इसलिए लिखती हूँ कि 
तुम्हे पढ़ना अच्छा लगता है....

185-
क्यों ना आज मैं कुछ ऐसा लिख दूँ....
जो तुम्हे बैचैन भी कर जाये...
और सुकून भी दे जाये.....

कुछ बिखरी पंखुड़ियां.....!!! भाग-19

166-
साथ तुम्हारा दूर उदासी
फैला दो ना बाहें अपनी
सच मैं धड़कन हो जाउंगी.....

167-
तेरी बातो से मेरी..
हर इक रचना रच जाती है...
कविता तो मैं लिखती हूँ...
कविता जैसी बाते..
तुमको आती है...

168-
मैं तुम्हे तलाश करूँ...
और तुम मुझे मिल जाओ...
इतनी तो आसान नही जिन्दगी...

169-
कई ख़त तुम्हारे लिये..
मैंने इस साल लिखे....
तुम्हारे उलझे हुए जवाब...
अपने अधूरे सवाल लिखे...
कई ख़त तुम्हारे लिये..
मैंने इस साल लिखे...
कुछ शिकायतो के दिन लिखे..
कुछ महीनो के प्यार लिखे...
कुछ तुम्हारी शरारते लिखी..
कुछ खुबसूरत ख्याल लिखे....

170-
अपने लिखे दो शब्दों से..
हर रोज तुम्हारी जिन्दगी में...
मिठास घोलने की...
कोशिश करती हूँ मैं....

171-
मैंने तुम्हे उस दिन पा लिया...
जिस दिन तुम्हे...
मुझे खो देने का डर महसूस हुआ....

172-
जब भी देखा खुद को दर्पन में...
होटों पर मुस्कान तुम्हारी थी..
हाथो में कंगन तुम्हारे नाम के थे..
आखों में तस्वीर तुम्हारी थी...
क्या कहती मैं..पगली..कि 
इस "सावन"में मन "साजन" हो गया..

173-
लम्हों में जो एक लम्हा था,
तुम्हारी उँगलियों में उलझी थी...
जो उँगलियाँ मेरी..
उनको सुलझाकर लिखना आसान नही....

174-
सावन की बारिश हो..
महेंदी से महकती 
हमारी हथेलियाँ हो....
फिर लौट आये...
वो हमारी बाते...
वो मस्तियां...और मेरी सहेलियाँ...

175-
पूरी दुनिया मुझे पढ़े तो क्या....
ग़र तुम मुझे ना पढ़ो तो ...
मुझे लिखना भला नही लगता...!!!

Sunday 30 August 2015

तुम ही तुम....!!!

चाँद भी तुम...
सूरज भी तुम..
आसमां भी तुम..
जमी भी तुम...
लबो की ख़ुशी भी तुम..
आखों की नमी भी तुम..
अन्धकार भी तुम..
रौशनी भी तुम...
मेरा तो सारा संसार हो तुम...
शिव भी तुम...
शक्ति भी तुम...
अर्चना भी तुम..
उपवास भी तुम...
जीत भी तुम...
हार भी तुम...
मेरे जीवन का आधार हो तुम...
मोह भी तुम..
सन्यास भी तुम...
सागर भी तुम...
प्यास भी तुम...
मेरे जीवन का...
वर्तमान भी तुम....इतिहास भी तुम...!!!

Sunday 23 August 2015

मैं श्रृंगार करुँगी.....!!!

फिर आज...
मैं श्रृंगार करुँगी...
जब तक...
तुम से जी भर कर,
तारीफे नही सुन लुंगी...
तब तक ना...
तुमसे प्यार करुँगी...
फिर आज...
मैं श्रृंगार करुँगी...
माथे पर तुम्हारे होटों की,
निशानी रखूंगी...
आँखों में तुम्हारी नजरो की,
कहानी भर लुंगी...
लबों पर तुम्हारे नाम की,
मुस्कान रखूंगी
हथेलियों पर...
तुम्हारी हथेलियों की,
छुअन की महंदी रचुंगी..
मैं तो आज सिर्फ...
तुम्हारे लिए सजुंगी...
जब तक..
तुम से जी भर कर,
तारीफे नही सुन लुंगी...
तब तक ना...
तुमसे प्यार करुँगी...
फिर आज...
मैं श्रृंगार करुँगी...
मैं ना...
बिंदिया..चुड़ी..पयाल..
बिछुआ..हार...पहंनुगी..
मैं तो सिर्फ..
तुम्हारे रंग में रंगुगी..
जब तक...
तुम से जी भर कर,
तारीफे नही सुन लुंगी...
तब तक ना...
तुमसे प्यार करुँगी...
फिर आज...
मैं श्रृंगार करुँगी...!!!

Saturday 22 August 2015

मेरा कुछ भी लिखना....!!!

मेरा कुछ भी लिखना...
दो पल तुमसे बाते...
करना होता है...
शब्दों में तुम्हे उतार कर,
पन्नो पर सजाना..
तुम्हे अपनी उँगलियों से..
छूना होता है...
मेरा कुछ भी लिखना...
तुमसे प्यार का इजहार..
करना होता है...
अपने शब्दों से तुम्हे पुकारना...
तुम्हे याद करना होता है....
मेरा कुछ भी लिखना...
तुम्हारे लिये...
दुआ करना होता है..
कविताओं में...
तुम्हारा जिक्र करना...
तुम्हारी इबादत करना होता है...
मेरा कुछ भी लिखना..
तुम्हे लिखना होता है..
शब्द तब शब्द कहाँ रहते...
मेरे शब्दों में सिर्फ,
नाम तुम्हारा होता है....

Friday 14 August 2015

वो दो लम्हे...!!!

वो दो लम्हे...
जो तुम्हारे साथ गुजरे...
दो सदियों के जैसे थे...
या कहूँ कि..
दो जन्मों की हो बात..
उन दो लम्हों में..
सब कुछ तो पा लिया मैंने,
उन दो लम्हों में..
बेइन्तहा प्यार...
तुम्हारी आखों में...
खुबसूरत शरारत तुम्हारी बातो में...
इक उम्मीद थी...
उन दो लम्हों में..
रातो के ख्वाब थे..
उन दो लम्हों में...
पहली बारिश में...
भीगी मिट्टी सी खुसबू थी,
उन दो लम्हों में...
खुदा की गयी...इबादत थी,
उन दो लम्हों में...
दो पन्नो में क्या लिखूं,
उन दो लम्हों को...
कि जिन्दगी की किताब थी...
उन दो लम्हों में....
उन दो लम्हों की,
जो करने बैठ गयी जो बात...
तो कम पड़ जायंगे..
इक दिन...इक रात...
इक जिन्दगी भी जो करुँगी,
बात तो खत्म ना होगी..
उन लम्हों की बात...
वो दो लम्हे...
जो मेरी जिन्दगी में,
सांसो की तरह है..
वो लम्हे जो मेरी आखों में,
ख्वाबो की तरह है...
वो दो लम्हे...
जो गुजरे थे जो तुम्हारे साथ,
मेरे हर सवाल के थे..
वो जवाब..
वो दो लम्हे....
जो मुकम्मल करते है...
मेरा ख्वाब...!!!

Monday 10 August 2015

नही सुलझा पायी....!!!

नही सुलझा पायी,
उन उलझनों को जिसमे..
तुम उलझा कर गये थे...
बंध सी गयी उन उलझनों में,
नही खोल पायी,
कोई गिरह...
ना ही मिला मुझे कोई सिरा...
उलझ कर गयी हूँ...
तुम्हारी बातो में,अहसासों में,
तुम्हारे वादों में...
नही समझ पा रही हूँ,कि
झूठ क्या था,तुम्हारा प्यार...
या तुम्हारी बाते या तुम्हारे वादे...
क्या सिर्फ छलावा था,
जो तुम्हारी आखो में देखा था,
या सिर्फ मेरा भ्रम था,
जो मेरे दिल ने..
महसूस किया था....
ग़र मान लूँ की...
सब झूठ था..भ्रम था...
तो भी तुम्हारी तरह,
मैं भी झूठी थी...
जो तुम्हारी झूठी आँखों को,
ना पढ़ सकी...
उलझन में हूँ...
कि ग़र गलत तुम्हे कहूँ...
तो गलत मैं भी हूँ..
कि गलत को चुना है मैंने....!!!

Sunday 9 August 2015

वो खामोश सी शाम...!!!

मुझे आज भी याद है,
वो खामोश सी शाम...
ना जाने कितने ही..
अफ़साने छिपाये गुजरती,
जा रही थी..
वो खामोश सी शाम....
जब हम मिले थे..
इस तरह हम ख़ामोश,
इक दूजे के साथ बैठे थे,
कि जैसे कोई बात ही ना हो...
हमारे अन्दर एक तूफान,
चल रहा था...
पर ख़ामोशी ने,
हमारे होठ सिल दिए थे....
इक ऐसी ख़ामोशी,
जिसके शोर में..
हम दोनों ख़ामोश हो गये थे..
फिर अचानक कुछ हुआ..
कोई हलचल सी हुई..
यूँ लगा कि...
जैसे साँसे चलने लगी हो..
जब तुम्हारी उँगलियां,
मेरी हथेलियों में...
कुछ ढूंड सी रही थी,
शायद उन लकीरों को,
जिसने हमे मिलाया था..
या फिर...
कुछ लिखना चाहती थी,
तुम्हारी उँगलियाँ...
मेरी हथेलियों पर....
मुझे नही पता कि,
जो तुम ढूंड रहे थे,
वो मिला की नही,
या जो तुम लिखना चाहते थे,
वो लिखा की नही...
पर हाँ मैं आज भी...
देर तक देखती हूँ....कि शायद
मैं वो पढ़ सकूँ जो,
तुम उस दिन मेरी हथेलियों,
पर लिख कर गये थे...
मुझे कुछ नही मिला,
सिवा ख़ामोशी के,
जो हर सवाल के जवाब में...
तुम छोड़ गये थे...!!!

Wednesday 5 August 2015

तुम्हारी राधा...बनना चाहती हूँ मैं....

मुझे उच्चाइयां आसमानों,
की मिले न मिले..
तुम्हारी आखो में...
उतरना चाहती हूँ मैं..
मुझे बहारे मिले ना मिले,
बन के खुशबू...
तुम्हारी सांसो से...
गुजरना चाहती हूँ मैं...
मेरा जिक्र तुम्हारी बातो में..
हो ना हो...
तुम्हारी यादो में,
रहना चाहती हूँ मैं....
मैं तुम्हारे  साथ....
चलूँ ना चलूँ,
तुम्हारे कदमों के निशां पर,
चलना चाहती हूँ मैं....
तुम मुझे इक नजर,
देखो ना देखा,
अपने हर नज़ारे में,
तुम्हे देखना चाहती हूँ मैं....
तुम मेरे कान्हा...
बनो ना बनो..
तुम्हारी राधा...
बनना चाहती हूँ मैं....!!!

Sunday 2 August 2015

सुकून की तलाश थी...!!!

हम दोनों एक साथ थे..
साथ रहते थे,
हर पल इक साथ ही तो थे...
फिर भी ना जाने क्यों..
मुझे सुकून की तलाश थी...
वो सुकून..
जो तुम्हारी आखों में,
देर तक देखने में मिलता था...
वो सुकून...
जो तुम्हारे हाथों को,
थाम कर चलने में था...
वो सुकून...
जो किसी सफ़र पर,
तुम्हारे काँधे पर सर,
रख कर सोने में था...
वो सुकून...
जो अपनी हथेलियों पर,
तुम्हारे चहेरे को रख कर,
सोने में था...
वो सुकून...
जो बेवजह तुम्हारा,
मेरे माथे को चूमने में था...
ना जाने कहाँ खो गया...
वो सुकून....
जो हमारे साथ होने में था...
हर पल हम साथ तो थे..
लम्हों का सुकून नही था...
मैं जीना चाहती हूँ,
वो सुकून....
यूँ ही बेवजह...
किसी सफ़र पर,
चलना चाहती हूँ दूर तक..
मंजिल मुझे मिले ना मिले,
तुम्हारे साथ सफ़र पर हूँ..
ये सुकून तो रहेगा....!!!

Thursday 30 July 2015

तुम्हारी मजबूरियां.....!!!

मुझे आज भी याद है...
वो दिन...
जब तुम अब मेरा,
साथ नही दे पाओगे..
तुम मुझे छोड़ कर जाने की,
अपनी सारी मजबूरियाँ,
बता रहे थे...
भविष्य में होने वाली
सम्भावनाए..
जो मुझे नही पता की,
होंगी कि नही..
पर तुम्हे यकीन था..
उन्ही सब का वास्ता दे कर...
तुम मुझे छोड़ कर जाने की,
मजबूरियाँ बता रहे थे...
मैं सुन रही थी तुम्हे...
तुम्हारी मजबूरियों को सुन कर
अन्दर ही अन्दर टूट रही थी...
और ढूंढ  रही थी,
कुछ तुम्हारी बातो में,
तुमने अपने सभी,
टूटे सपनो के बारे में तो बताया,
पर एक भी मेरे साथ देखे,
सपने का जिक्र भी नही किया...
इक पल को लगा,
तुम्हारा मेरे साथ होना भी
कोई तुम्हारी मज़बूरी है...
पर मैं अब भी तुम्हारे साथ थी..
इसलिए नही कि,
मैं मजबूर थी..
बल्कि इसलिए की,
मुझे यकीन था खुद पर..
कि ग़र हम साथ होंगे,
तो सम्हाल लेंगे,
जिन्दगी के हालातो को...
हो सकता है कि कई बार,
हम जिन्दगी में हार भी जाये,
पर ग़र हार भी गये तो,
हम रहंगे साथ..
उस हार का जशन,
मनाने के लिये...
मैं कुछ कहती कि,
तुमने कह दिया कि,,
तुम समझोता कर रही हो..
इतना भी समझोता,
नही करना चहिए...
इक पल और मेरा खुद पर किया,
सारा गुरुर चकनाचूर हो रहा...
तुमने प्यार को समझोता,
नाम दे दिया...
तुम्हारी मजबूरियों के साथ,
आज मेरा सब कुछ बह गया....!!!

Wednesday 29 July 2015

सागर,इतना खारा क्यों है...!!!

फिर वही अलसायी सी शाम...
और इक भार सी लगती..
मुझे मेरी साँसे...
हाँ तुम्हारे बिना..
मुझे जीना भी,
भारी सा लगता है...
मैं यूँ ही बेचैन सी..
ना जाने क्या सोचते -सोचते,
सागर के किनारे आ गयी...
शायद कुछ कहना था..
इक बोझ सा था दिल पर..
तुमसे शिकायतों का..
तुम्हारी शिकायतों का...
कहना चाहती थी तुमसे...
पर तुम सुनना नही चाहते थे..
तो तुमसे शिकायते हो गयी....
हाँ कभी जबरदस्ती,
कह दी जो बाते..
यूँ बे-वजह तुम्हे परेशान किया...
तो मुझसे तुम्हारी शिकायते हो गयी....
कब से इन शिकायतो की गठरी,
को ले कर मैं घूम रही थी..
आज इस सागर में..
इस बोझ को बहा दिया...
कह दिया मन का सारा गुबार..
खाली मन से सागर को,
देख कर मैं मुस्करायी..
मुझे देख कर,
सागर भी मुस्करा दिया...
आज समझा सागर,
इतना खारा क्यों है...
हम जैसे कितनो के आंसुओ को,
ये खुद में मिला लेता है..
इक लहर जो छु कर,
समाती है जो उसमे..
तो खुद भी मुस्करा देता है...!!!

Saturday 25 July 2015

तुम्हारे साथ तारो को गिनना....!!!

छत पर लेटे-लेटे तारे गिनने की
नाकाम कोशिश कर रही थी...
शर्त लगी थी खुद से,
क्या मैं तुम्हारे बिना तारे...
नही गिन सकती हूँ...
क्यों नही कर सकती हूँ..
मैं करके रहूंगी....
पर तुम नही तो...
जैसे गिनतिया ही भूल गयी हूँ...
जहाँ से शुरु करती हूँ..
वही फिर वापस आ जाती हूँ...
तुम नही हो तो...
ये तारे भी मेरा साथ..
नही दे रहे है..
बादलों में छुप कर,
आँख मिचौली खेल रहे है....
तुम नही हो तो चाँद भी...
रूठ कर छिप गया है कही...
सोचती हूँ कि इस बार...
जब चाँद से बात करुँगी,
तो तुम्हारी सारी,
शिकायते करुँगी...
पर देखो ना..
चाँद भी मेरे शिकायते नही,
सुनना चाहता है...
ये चाँद ये तारे कभी,
जो मेरे हुआ करते थे....
सभी तुम्हारे हो गये है...
तुम नही हो तो,
मुझसे बाते भी नही करते है...
सच ही मैं खुद से लगी,
शर्त हार  गयी हूँ...
मेरा हारना ही,
मुझे मेरी जीत लग रहा है...
सच्ची ये चाँद..
ये तारे तुम्हारे साथ ही,
अच्छे लगते है...
और यकीनन मैं भी,
इन्हें तुम्हारे साथ ही..
अच्छी लगती हूँ....
नामुमकिन नही लगता,
तुम्हारे साथ तारो को गिनना....!!!

Thursday 23 July 2015

तुम्हारे नाम लिखे सारे ख़त....!!!

तुम्हारे नाम लिखे सारे ख़त,
मैं आज भी दराज से,
निकालने में डरती हूँ..
मैं खो ना जाऊं...
कही उनके लब्जों में,
अनदेखा करके...मैं आज भी,
उस अलमारी के पास,
से गुज़रती हूँ...
तुम्हारे नाम लिखे सारे ख़त....
हाँ कई बार आया है,
ये ख्याल जहन में,
कि निकाला है जिस तरह से,
तुम्हे जिन्दगी से..
इन खतों को क्यों नही,
निकाल फेकती हूँ...
हाथ जब भी बढाती हूँ,...
कर नही पाती हूँ..
तुम्हारे खतो की खुशबू से,
जैसे मेरी साँसे चलती है...
तुम्हारे नाम लिखे सारे ख़त...
कई बार सोचती हूँ..
इक बार पढ़ लूँ...
तुम्हारे खतो को....
इक बार जी लूँ......
तुम्हारे लब्जों को..
डरती हूँ कि......
जो इस बार तुम्हे पढ़ लिया,
तो ना फिर...
तुम्हे छोड़ पाऊँगी...
इक बार जो मुड़ कर देखा,
जो तुम्हे...
तो फिर ना आगे बढ़ पाउंगी...
अनदेखा करके मैं,
आज भी अलमारी के,
पास से गुजरती हूँ...
तुम्हारे नाम लिखे सारे ख़त....

Tuesday 21 July 2015

उस घाट पर जाती हूँ...!!!

मैं आज भी..
उस घाट पर जाती हूँ...
ऊपर से नीचे जाती हुई सीढ़ियों पर
किसी पर बैठ जाती हूँ...
सबसे नजरे बचा कर,
मैं उन सीढ़ियों से धीरे से...
पूछ लेती हूँ..
कि कही मेरे जाने के बाद,
तुम वहाँ आये तो नही थे...
घंटो उन सीढ़ियों पर बैठ कर,
मैं उस नदी को देखती रहती हूँ,
कि कभी तो..
उसमे हलचल होगी...
और मेरे सवालो के जवाब,
मुझे मिल जायेंगे....पर
ना उस नदी में,
कोई हलचल होती है...
ना ही सीढ़ियों से,
कोई जवाब  मिलता है...
मैं मौन भारी मन से,
चली आती हूँ..
इस इन्तजार में...कि
कभी तो...
मेरे सवालो से टकरा कर,
ये सीढियाँ बोल उठेंगी..
कभी तो मेरे टूटने से पहले,
उस नदी का मौन टूटेगा....!!!

इस बार जब सावन आये.....

सुनों...इस बार..
जब सावन आये...
तब तुम मुझे,
झूला-झुला देना ....
डरती हूँ गिरने से मैं..
ज्यादा तेज नही,
धीरे-धीरे झुला देना...
सुनों...इस बार..
जब मुझे नींद ना आये...
तो तुम मुझे,
थपकी दे कर सुला देना...
गर फिर भी..
मुझे नींद ना आये..
तो फिर कोई धुन,
गुनगुना देना...
सुनो...इस बार..
ग़र मैं रूठ जाऊं..
तो मुझे मना लेना...
फिर ग़र मैं ना मानूं..
तो मुस्करा कर,
गले से लगा लेना...
सुनों...इस बार...
ग़र कही मैं
बिखर जाऊं..
तो तुम मुझे सम्हाल लेना..
फिर भी गर ना चल पाऊं...
ऊँगली पकड़ मेरी,
मुझे चलना सीखा देना....
सुनो...इस बार...
ग़र मेरी आखों में,
आसूं आये..
तुम उनको रोक लेना..
फिर गर ना रुके आँसू....
अपने होटों की छुअन,
मेरी पलकों पर सजा देना...
सुनों...इस बार..
जब तुम,
मुझसे दूर जाना..
मुझे ख़त लिखना...
सीखा देना...
फिर ग़र कभी..
ख़त तुम्हे जब ना मिले मेरा..
तो तुम बिन जीना मुश्किल है...
सब कुछ छोड़ कर चले आना...
सुनों...इस बार...
जब सावन आये.....

Thursday 16 July 2015

सब कुछ तो कह दिया तुमसे....!!!

सब कुछ तो कह दिया तुमसे,
अब तुमसे भी...
कुछ सुनना चाहती हूँ...
तुमसे बिछड़ कर जो उदासी है,
मेरे चहेरे पर..
वही बचैनी तुममें भी..
देखना चाहती हूँ...
सब कुछ तो कह दिया तुमसे,
अब तुमसे भी...
कुछ सुनना चाहती हूँ...
अनकहा सब कुछ लिख दिया मैंने,
कुछ अनछुआ सा तुमसे भी,
महसूस करना चाहती हूँ...
सब कुछ तो कह दिया तुमसे,
अब तुमसे भी...
कुछ सुनना चाहती हूँ...
ढलती शामों का एहसास..
जागती रातो का राज..
सब कुछ तो दे दिया तुम्हे..
अब तुमसे भी कुछ,
मांगना चाहती हूँ....
सब कुछ तो कह दिया तुमसे,
अब तुमसे भी...
कुछ सुनना चाहती हूँ......!!!

Wednesday 15 July 2015

वो किताब...!!!

आखिर मैंने ढूंढ ही ली...
वो किताब,
जिसको तुमसे मांगने,
और तुम्हारे देने..में..
इक रिश्ता बनाया था...
हमारे बीच...
वक़्त की गहराइयों में,
कही खो गयी थी...
वक़्त की धुल में...
इस कदर लिपटी की..
पहचाना भी मुश्किल था...
आखिर मैंने ढूंढ ही ली..
वो किताब...
आज भी जब मैंने..
वो किताब खोली,
तो वही जानी-पहचानी..
खुशबू बसी थी..
उसके हर पन्ने पर...
आज भी जब उस पर...
लिखे शब्दों को,
मेरी उँगलियों ने छुआ तो,
किसी की उँगलियों का,
एहसास करा गयी..
वो किताब...
आखिर मैंने ढूंढ ही ली..
वो किताब...
आज भी जब मेरे होंटों ने,
उस पर लिखे शब्दों को पढ़ा...
तो जैसे कोई धुन सुना गयी..
वो किताब...
आखिर मैंने ढूंढ ही ली..
वो किताब...
जिसमें कही छिपा कर रखा,
हुआ सूखा गुलाब,
किसी की बेवजह बातो का,
जिक्र करता है...
किताब का पलटता हर पन्ना,
किसी के साथ गुजरी हुई,
शामों का जिक्र करता है...
फिर किसी की याद दिला गयी..
वो किताब...
आखिर मैंने ढूंढ ही ली...
वो किताब...
जिसमे मेरी सांसो की,
चलने की वजह थी...
जिसमें मेरी धड़कनो के,
धड़कने का सबब था...
आखिर मैंने ढूंढ ही ली...
वो किताब...!!!

Tuesday 14 July 2015

मैं तो तुम्हारी राधा बनूँगी...!!!

मैं नही तुम्हारे साथ...
किसी सफ़र पर चलूँगी...
मैं नही तुम्हारे साथ...
जिन्दगी भर रहूंगी...
मैं तुम्हारा एहसास बनूँगी...
मैं तो तुम्हारी राधा बनूँगी....
मैं नही तुम्हारे साथ..
चाँद को देखूंगी..
मैं नही तुम्हारे साथ..
किसी सुबह में रहूंगी...
मैं बनके मुस्कान....
तुम्हारे होटों पर रहूंगी...
मैं तो तुम्हारी राधा बनूँगी....
मैं नही तुम्हारे साथ...
बारिशो में भीगुंगी..
मैं तो तुम्हे छूती..
बूंदों में रहूंगी...
मैं तो तुम्हारी राधा बनूँगी....
मैं नही तुम्हारी किसी खुशी में..
शामिल रहूंगी..
ना ही तुम्हारे किसी पुरे होते..
सपने का हिस्सा ही बनूँगी..
मैं तो तुम्हारी बंद आखों के...
सपनो में रहूंगी..
मैं तो तुम्हारी राधा बनूँगी....
मैं नही तुम्हारे पन्नो पर,
बिखरे शब्दों में रहूंगी....
मैं तो तुम्हारे...
अनकहे ख्यालों में रहूंगी..
मैं नही तुम्हारे..
जवाबों में रहूंगी...
मैं तो तुम्हारी आपस में,
उलझती उँगलियों के..
सवालो में रहूंगी...
मैं तो तुम्हारी राधा बनूँगी...!!!

Sunday 12 July 2015

डायरी में बंद सपने मेरे......!!!

फिर आज किताबो के ढेर में..
इक पुरानी डायरी कही दबी हुई मिली....
याद नही कि कब लिखी थी,
हाँ शौक तो था,
मुझे डायरी लिखने का...
हर दिन की बाते..
मैं इस डायरी में लिखा करती थी....
इक पन्ना पलटा..
तो टेड़े मेढ़े अक्षरों में...
मैंने अपना नाम लिखा था...
हँसी आयी कि,
कितनी खराब लिखावट थी मेरी...
इक और पन्ना पलटा तो..
कुछ नाराजगी से भरी से,
कुछ लाइन लिखी थी..
लिखी थी कि...
माँ मुझसे प्यार नही करती,
हर रोज मुझे स्कूल भेज देती है...
कितनी नादान थी मैं...कि 
वही बचपन की मुस्कान मेरे होटों पर आ गयी....
इक और पन्ना पलटती हूँ...
तो लिखा था कि...
मैं बड़ी हो कर डॉक्टर बनूगी...
पढ़ कर थोड़ी उदास हो गयी मैं...
ये सपना तो जैसे भूल गयी थी....मैं ...
और डायरी में लिख कर,
दब कर रह गया था....
मैंने झट से..
वो डायरी बंद कर के रख दी...
इस डर से कि...
ना जाने कितने ही सपने बंद थे,
इस डायरी में...
फिर उस डायरी को,
उसी ढेर में कही दबा कर रख दिया..
मुस्कराते हुए खुद से कहते हुए कि
डायरी में बंद सपने मेरे......!!!

Thursday 9 July 2015

कुछ बिखरी पंखुड़ियां.....!!! भाग-18

156.
मैं खुद को खो दूँ कि इससे पहले तुम मुझे ढूंढ लेना......
157.
क्यों....मैंने कभी कोई सवाल नही किया....
कि तुम्हारे साथ गुजरे लम्हों की उम्र कितनी है
158.
अब जब तुम मुझसे कुछ सुनना चाहते हो....
अफ़सोस...अब मेरे पास कहने को कुछ भी नही है....
159.
कुछ तो था तुम्हारी आँखों में...
कि तुम्हारा मुझे छोड़ कर वो जाते हुए...
वो लम्हा आज तक मेरी आँखों ठहरा हुआ है...
160.
मेरे शब्दों ने तुम्हारी खामोशिया तोड़ी है...
हर बार सवाल तुम्हारी आँखों ने किये है...
हर जवाब में मेरी पंक्तिया बोली है... 
161.
चलो तुम्हे ढूंढते है आज.....
तुम्हारा पता हर गली...
हर राह से पूछते है आज...
162.
जिधर भी देखती हूँ...
मुझे देखती तुम्हारी वो दोनों.. 
आँखे ही दिखायी देती है....
163.
मैं ना तुम्हे खोना नही चाहती...
इसलिये नही की तुम बहुत अच्छे हो...
बल्कि तुम जैसे भी हो,जो भी हो...
मुझे अच्छे लगते हो....
164.
तुम मुझे जीतने की,
इक कोशिश तो करो...
मैं तो खुद को पहले ही,
हार चुकी हूँ....
165.
अक्सर जब सफ़र में होती हूँ...
तो न चाह कर भी जिन्दगी के suffer बारे में सोचती हूँ.. 

कुछ बिखरी पंखुड़ियां.....!!! भाग-17

146.
बारिश की बुँदे.....और
तुम्हारी आखों से बरसता हुआ प्यार,
कैसे कहूँ किसने.....मुझे ज्यादा भिगोया है....
147.
मैं तुम्हे लिखती रही...
अपनी कविताओं में....
और तुम हमेसा रहे..मेरी अलिखित पंक्तियों में.....
148.
बहुत खास है वो नज़र.....
जिन नजरो को मैं खास लगती हूँ......
149.
ह "सुषमा"ही है...
जिसने फैला प्रकाश दिया है...
वह "सुषमा" ही है...
जिसने अंतर्मन के सौन्दर्य से सबका जीत विश्वास लिया है...
किये विचार "सुषमा" पर सबने अलग- अलग ठहराये...
उनमे कौन सही है?
कौन गलत है?
ये कोई कैसे बतलाए..
"सुषमा" को अब अस्तित्व मिल जाने की आशा है..
निश्छल-निर्दोष सिर्फ दो शब्दों से बनती "सुषमा" की परिभाषा है...
150.
मैं इसलिये नही लिखती कि,
मुझे लिखना अच्छा लगता है...
मैं इसलिए लिखती हूँ..
कि तुम्हे पढ़ना अच्छा लगता है.....
151.
क्यों ना आज मैं कुछ ऐसा लिख दूँ....
जो तुम्हे बैचैन भी कर जाये...और सुकून भी दे जाये.....
152.
बादल है...बारिश है...बुँदे है.....सिर्फ तुम नही हो.....
153.
तुम्हारी ख़ामोशी को शब्दों में गढ़ दिया है मैंने....
जो तुम कह नही पाये मुझसे...
वो सब तुम्हारी नजरो में पढ़ लिया है मैनें.....
154.
चलो अब बाते ख़ामोशी की करते है....
बहुत अजीब है ये खामोश हो कर भी बहुत बोलती है....
155.
गर मुमकिन होता तो अपनी..
आखों के ख्वाबो को तुम्हारी पलकों पर रख देती...तुम्हे वो दिखाती जो मैं हर रोज ख्वाबो में देखती हूँ...

Monday 22 June 2015

वो इक शाम...!!!

वो इक शाम जो...
तुम्हारे साथ गुजारी थी...
तुम्हे याद है.....
भीगी घास पर नंगे पाँव,
जब हम चल रहे थे....
तुम्हे पता है...
मैं तुम्हारा हाथ थाम कर,
दौड़ जाना चाहती थी....
वो इक शाम....
जब काफी के साथ चुपके से,
इक दुसरे को देख कर,
हम मुस्करा देते थे...
वो इक शाम....
जो सिर्फ तुम्हारी..
इक मुस्कान को देखने के लिए,
मैंने तुम्हारे साथ गुजारी थी....
वो इक शाम....
जब ख़ामोशी भी गुनगुनायी थी....
लिखा कुछ था मैंने...
वो ग़ज़ल तुमने सुनाई थी....
वो इक शाम....
जो ढलते हुए अपने साथ,
तुम्हारी याद लायी थी....
वो इक शाम....
शायद मैंने कुछ कहा था...
या फिर तुमने कानो में,
चुपके से कोई बात बतायी थी....
तुम्हारे साथ बीती,
हर शाम मेरी आने वाली...
हर शामो को महकाती है....
जब तुम नही होते हो...
तो बन कर हमसफ़र...
मेरे साथ बैठ जाती है...
वो इक शाम...!!!

Saturday 13 June 2015

इक साथ...!!!

मैं कब से ढूंढ रही...
इक साथ...
जो मेरे डरने से,
पहले मेरे हाथ थाम ले...
इक साथ जो मेरी आखों में,
आँसू आने से पहले,
होटों पर मुस्कान दे....
इक साथ जो...
मैं जब जिन्दगी से...
थक जाऊं तो...
वो मेरी आखिरी कोशिश बन के...
मुझको सम्हाल ले....
इक साथ जिसके साथ,
तपती धुप में भी चलना,
मुझे छाव लगे.....
इक साथ जिसके लिये....
मैं खुद को खो भी दूँ..
तो वो मुझसे कहे....
तुम्हारे लिये मैं हूँ ना...!!!

Friday 12 June 2015

इन शब्दों के बिना....!!!

कल रात सपने में...
मेरी शब्दों से मुलाकात हुई...
बिखरे पड़े थे...
इधर-उधर..बैचैन से...
मुझे देखा...बड़ी नारजगी से...
शिकायत थी उन्हें मुझसे...
कि मैंने उन्हें क्यों...
किसी कविता में पिरोया नही...
उन्हें नाराजगी थी....
कि क्यों....
मैंने उनसे अपने दिल की,
बाते नही कही....
मैं चुप थी....
ख़ामोशी से बिखरे पड़े...
शब्दों को देख रही थी..
तभी इक शब्द ने...
मुझसे आ कर कहा...
कि तुम्हारी ख़ामोशी को भी,
शब्दों की जरुरत पड़ेगी...
कि अचानक....
इक शब्द मुस्कराहट बन कर,
मेरे लबो को छू गया....
और सारी रात शब्दों से,
अपनी आपबीती कहती रही...
बिखरे शब्दों से साथ...
अपने बिखरे मन को भी,
समेटती रही....
सच ही तो है..
कहाँ मैं कुछ भी हूँ...
इन शब्दों के बिना....!!!

Sunday 31 May 2015

तुम्हे ख़त लिखना..अच्छा लगता है...!!!

ना जाने क्यों तुम साथ हो,
पास भी हो...फिर भी..
तुम्हे ख़त लिखना..
अच्छा लगता है...
मुमकिन है कि...
तुम्हे सामने बिठा कर,
हाथो में हाथ ले कर..
मैं सारी बाते तुमसे कह दूँ...
न जाने क्यों तुमसे,
छुप कर...तुम्हे ख़त लिखना,
अच्छा लगता है....
बेशक मैं ख़त में...
सारी बाते लिख कर...
तुम्हे अपने हाथो से मैं दे दूँ...
फिर भी ना जाने क्यो...
मैं तुम्हारी रोज मर्रा...
चीजो में ख़त को छुपाती हूँ...
कि तुम्हे अचानक से,
मेरा ख़त मिले.....
ना जाने क्यों तुम्हे....
इस तरह ख़त देना अच्छा लगता है....
मैं तुम्हे खतो मे...
गुजरी शामो को लिखती हूँ,
गहरी रातो को लिखती हूँ...
हमारे बीच वो पहला एहसास..
प्यार का कभी भूले ना...
मुझे खतो में हमारे गुजरे पलो,
को वापस लाना अच्छा  लगता है....
तुम्हे ख़त लिखना..
अच्छा लगता है...!!!

Thursday 28 May 2015

तुझमे सिमटी सी ज़िन्दगी...!!!

तुझमे सिमटी सी ज़िन्दगी...
तुमसे शुरु....
तुम पर ही खत्म होती है....
दिन की शुरुवात...
तुम्हारी आखों के सपनो के,
साथ होती है...
दिन चढ़ते-चढ़ते....
तुम्हारी उलझनों को सुलझाने में,
उलझती जाती है...
शाम होते-होते...
तुम्हारे होटों पर...
मुस्कान लाने की कोशिश में ढलती है...
और रात होते-होते...
तुम्हारी पुरे दिन की,
थकान को दूर कर के...
तुम्हे सुकून की नींद...
देने में गुजरती है....
तुम्हे सुकून से सोते देख कर,
मेरी जिन्दगी के...
इक दिन के सफ़र को,
जैसे मंजिल मिल जाती है...
तुझमे सिमटी सी ज़िन्दगी...
तुमसे शुरु तुम पर ही खत्म होती है....

Saturday 9 May 2015

मैं अपना लिखा,तुमसे सुनना चाहती थी.....!!!

मैं अपना लिखा तुमसे,
सुनना चाहती थी...
अपने शब्दों में तो पिरोया था मैंने,
अब तुम्हारी आवाज़ में,
बुनना चाहती थी....
मैं अपना लिखा तुमसे,
सुनना चाहती थी....
मुझे पता था कि...
कविताओं में पहले तुम्हारा,
कोई iterest नही रहा पर जब,
मैं तुम्हे अपनी कविताओ,
को सुनाती थी..
तुम मेरा मन रखने के लिये,
उन्हें बहुत मन से सुनते थे....
फिर भी....मैं जब भी कुछ लिखती,
तुम्हे पढ़ कर सुनाती थी,
मैं जानती थी कि...
मैं जबरदस्ती तुम्हे सुना रही हूँ..
पर जब तुम...
मेरी कविताओं को पढ़ते थे,
और पढ़ते वक़्त,
तुम्हे चहेरे पर इतराते भाव,
आखों में वो चमक,
होटों की रहस्यमयी मुस्कान..
कि जैसे...
मेरी कविताओं की हर पंक्ति,
सिर्फ तुम्हारे लिये ही है...
उस पल.....
मैं तुम्हारी छवि अपनी आखों में,
कैद कर लेना चाहती थी...
न जाने क्यों..
मैं अपना लिखा,
तुमसे सुनना चाहती थी.....!!!

Friday 8 May 2015

कुछ बिखरी पंखुड़ियां.....!!! भाग-16

136-
तुम मुझे जीतने की,
इक कोशिश तो करो...
मैं तो खुद को पहले ही,
हार चुकी हूँ...

137-
मैं तुम्हे अपनी पंक्तियों में पिरोती रही...
तुम मेरे शब्दों में बिखरते रहे..

138-
तुमसे पहले मेरी कविताओं में...
सब कुछ था...पर प्यार नही था...

138-
ऐसा नही है कि तुम्हारे दर्द से,
मुझे वास्ता नही है...
बस...ये मैंने कहा नही है..

139-
तुम कही भी रहो....
मेरी लिखी पक्तियाँ जब भी सुनोगे...
वो तुम्हारी अपनी ही लगेंगी....

140-
तुम्हारी मुस्कानों पर...
मैं सब कुछ वारी जाऊं...
तुम इक बार मुझे अपना मानो,
मैं तुम्हारी हो जाऊं....

141-
लोग क्या समझंगे...
मेरी मुस्कराहटो को..
हमने आखों की नमी की छिपायी है..
इन्ही मुस्कानों के पीछे...

142-
कभी यूँ भी तो हो....
मैं तुम्हे सोचूँ और,
तुम भी मुझे याद कर लो....

143-
मेरी सारी उपलब्धियां तुम्हारी है......

144-
क्या हिसाब लगाती ..
कि तुमने मुझे क्या दिया है?
मैं तो उलझी रही...
कि तुम्हे पाने के लिये..
मैंने क्या-क्या खो दिया है.....

145-
तुम्हारे कांधे पर सर रख कर...
जो मैंने आँखे बंद की थी...
उस इक लम्हे में...
पूरी इक जिन्दगी जी थी....