Monday 30 November 2015

मैं जिंदगी से वही इक दिन मांगता हूँ...

आज यूँ ही जिंदगी के सफ़र पर,
तुम्हे छोड़ कर जाते हुऐ..
ये दिल ना जाने क्यों सिर्फ,
इक दिन जिंदगी से मांग रहा है...
वही इक दिन जो मैं बरसो से,
तुम्हारे साथ जीना चाहता था,
वही इक दिन जिंदगी से मांगता हूँ...
जो मैने तुम्हारे लिये संजो कर रखा था,
तुम्हारे साथ जीना चाहता था..
आज तुम्हे छोड़ कर जाते हुऐ,
मैं जिंदगी से वही इक दिन मांगता हूँ...
मैं जानता था...
तुम मुझसे बहुत कुछ सुनना चाहती थी,
सच कहूँ तो...
मुझे भी तुमसे बहुत कुछ कहना था,
पर जिंदगी की आपाधापी में,
मैं वो इक दिन हो तुम्हारे लिये था,
मैं तुम्हे नही दे पाया..
आज तुम्हे छोड़ कर जाते हुए,
मैं जिंदगी से वही इक दिन मांगता हूँ...
जब से तुम मेरी जिंदगी में आयी,
मेरे सपनो को,मेरी खुशियाँ ही,
तुम्हारी अपनी हो गयी,
मैं अपने लिये मेरे अपनों में,
ये सोचना ही भूल गया...कि
तुम्हारे सपनो को पूरा करने का,
भी मेरा वादा था...
मेरी जिंदगी को सवांरने-सजाने में,
तुम्हे अपनी पूरी जिंदगी दे दी..
और मैं तुम्हारा इक दिन भी नही दे पाया...
मैं तुम्हे बताना चाहता था,...कि
तुम किस साड़ी में बहुत खूबसूरत लगती हो...
मुझे ये बताना था कि..
मेरे लिये तुमसे ज्यादा,
कोई भी खूबसूरत नही है...
मुझे बताना था कि जब तक
तुम्हे ना देख लूँ,
मेरे दिन की शुरुवात ही नही होती है...
मुझे बताना था..
तुम्हे कि मैं आज जो कुछ भी हूँ,
तुम्हारी वजह से हूँ...
मुझे बताना था कि..प्यार-समर्पण
मैंने तुमसे ही सीखा...
ऐसी ही बहुत सी बाते थी,
जो तुमसे कहनी थी...उस इक दिन...
कि आज तुम्हे छोड़ कर जाते हुऐ,
मैं कितनी शिद्दत से जिंदगी से,
वही इक दिन मांगता हूँ...!!!

Sunday 29 November 2015

याद है वो तुम्हे चाँद की रात...

याद है तुम्हे वो चाँद की रात,
दूर तक थी चाँदनी...
अपने चाँद के साथ...
चांदनी की स्याह रौशनी में,
मैं बैठी थी थाम कर,
अपने हाथो में लेकर तुम्हारा हाथ...
याद है तुम्हे वो चांदनी रात...
तुम्हारी शरारती बातो की रात,
मेरी शरमाती आखों की रात,
तुम्हारी उँगलियों में उलझती,
मेरी उँगलियों की अधूरी बात..
याद है तुम्हे वो चाँद की रात...
मेरे बेतरतीब बिखरे हुए,
ख्वाबो की रात..
तुम्हारे साथ सिमटे पलों,
लम्हों की रात..,
वो सिर्फ महसूस करने वाले,
एहसासों की रात...
याद है वो तुम्हे चाँद की रात...!!!

Tuesday 24 November 2015

इक नयी अग्नि परीक्षा देती रही...

तुम्हारे हर सवाल का जवाब,
मैं बनती रही...
तुम मुझे आजमाते रहे,
मैं हर बार...
इक नयी अग्नि परीक्षा देती रही...
तुमसे प्यार करना,तुम्हारा साथ देना,
तुमको समझना...तुम्हारी उम्मीदे,
तुम्हारे सपने..
तुम्हारी हर बात पर..
खरी उतरती रही.......मैं हर बार...
इक नयी अग्नि परीक्षा देती रही...
क्यों मेरी चाहते,
मेरी खुशियां...तुम्हारी नही थी...
क्यों रिश्ते सिर्फ मेरे ही रहे,
हमारे नही हुए,
क्यों तुम्हारी मंजिले,
सिर्फ तुम्हारी थी...
क्यों मैं तुम्हारे साथ नही,
हर बार...तुम्हारे रास्तो पर,
तुम्हारे पीछे चलती रही है...मैं हर बार...
इक नयी अग्नि परीक्षा देती रही...!!!

कविताये कुछ नही कहती....

कभी-कभी कुछ कविताये,
कुछ नही कहती है...
ख़ामोश चुप सी बेतरतीब,
बिखरी सी रहती है...
कुछ कविताये कभी,
कुछ नही कहती है..
कभी-कभी कुछ कविताये,
जिन्दगी की किताब सी होती है...
पढ़ते तो सभी है,..
सभी के समझ के परे होती है...
ख़ामोश चुप सी बेतरतीब,
बिखरी सी रहती है...
कुछ कविताये कभी,
कुछ नही कहती है....!!!

Thursday 12 November 2015

कुछ बिखरी पंखुड़ियां.....!!! भाग-23

203.
अंधेरो से कह दो कि..
तुम्हारा आंगन छोड़ दे कि,
मैंने पंक्तियाँ दीयों की लगा दी है....
गमो से कह दो कि,
तुम्हारी देहरी पर ना आये,
कि रौशनी की खुशियाँ सजा दी है....

204.
हाथों में रची महेंदी से...
सब को पता चल जाता है...
कि तुम भी मुझे प्यार करते हो...
बिल्कुल मेरी ही तरह...

205.
मैं तब और भी अकेली हो जाती हूँ..
इक तुम्हारे मिलने से पहले,
इक तुम्हारे मिलने के बाद...

206.
तुम्हारे बिना...जिन्दगी की उलझनों में उलझ कर,
थक कर नींद तो आ जाती है...
वरना इक अरसा गुजरा है...
सुकून से सोये हुये...

207.

फिर इक बार.....
मैं शब्दों को गढ़ लूँ,
कि शब्द अब मिलते नही मुझे...
तुम जो पढ़ लो इक बार,
तो....मैं फिर कविता बन जाऊं.

208.
मेरा तुम्हारी जिन्दगी में होना,
तुम्हारे मन की बात होती है...
तुम्हारा मन है तो मैं हूँ...
मन नही तो मैं नही हूँ...
जब कि...
तुम्हारा मेरी जिन्दगी में होना,
जिन्दगी में साँसों का होना होता है..
तुम हो तो जिन्दगी है,
तुम नही तो जिन्दगी भी नही...

209.
कभी सोचती हूँ कि क्यूँ ना,
इक शाम तुम्हारे नाम कर दूँ....
इक शाम जो तुम्हारे साथ,
गुजारी तो महसूस किया....
क्यूँ ना...
इक जिन्दगी तुम्हारे नाम कर दूँ....


Friday 6 November 2015

तुम्हारी देहरी से लौट आई हूँ...!!!

मैं अक्सर तुम तक जा कर,
तुम्हारी देहरी से लौट आई हूँ,
कल रात भी हवाओं के साथ,
तुम्हारी पर गयी थी,
देखा की तुम मेरे ही,
ख्वाबो में सो रहे थे,
सोचा सांकल खटखटा आऊं,
तुमको जगा कर कहूँ,
कि तुम्हारे ख्वाबो से निकल कर,
तुम्हारे पास आई हूँ...
फिर सोचा कि...
अपनी चूड़ियों की खनक से,
तुमको जगाऊं,
तुम्हे अपनी रंग-बिरंगी,
चूड़ियाँ दिखाऊं...
फिर सोचा क्यों ना,
चुपके से तुम्हारे कानो में,
वो कह दूँ...जो तुम...
मुझसे अक्सर सुनना चाहते थे....
फिर सोचा कि क्यों ना,
तुम्हारी साँसों में घुल जाऊं..
खुशबू बन कर,
तुम्हारे दिल में बिखर जाऊं...
पर डर था..कि
कही तुमने मुझे पहचाना नही तो...
भ्रम है...मुझे कि
तुम मेरे ख्वाबो में ही सो रहे हो..
कही वो टूट गया तो...
बस यूँ ही...
मैं अक्सर तुम तक जा कर,
तुम्हारी देहरी से लौट आई हूँ,..!!!

Tuesday 3 November 2015

सिर्फ तुम्हारे लिये लिखती हूँ....!!!

जब भी कभी मैं अपनी प्रकाशित,
कविताओं को देखती हूँ...
तो मन में इक अजीब सी
हलचल सी होती है...
सोचती हूँ कि..
कभी जो पंक्तिया इक कागज में,
लिख कर तुम्हे छुपा कर,
तुम्हे दिया करती थी....
आज वो अखबारों के पेज में होती है...
सोचती हूँ कि,
क्या आज भी...ये कविताये,
तुम तक पहुँचती होगी....
क्या कभी सवेरे-सवेरे,
चाय की चुस्कियों के साथ,
जब तुम अखबार के पन्ने पलटते-पलटते,
यूँ ही अचानक मुझ पर,
नजर पड़ जाती होगी...
कुछ देर जैसे,
सब रुक सा गया होगा,
और तुमने इक ही सांस में,
मेरी पूरी कविता पढ़ ली होगी...
वैसे ही मुस्कराते हुए कहते होगे...
कि बिल्कुल पागल है...ये लड़की...
ना जाने क्या-क्या लिखती रहती है....
मुस्कराते होगे...
मैं जानती हूँ कि,
तुम हमेसा की तरह,
आज भी मेरी तारीफ नही करोगे...
पर सच कहूँ...
तुम्हारा पागल कहना ही..
तो यूँ लगता है...कि
मेरा लिखना सफल हो गया....
क्यों की....मैं आज भी,
सिर्फ तुम्हारे लिये ही लिखती हूँ...!!!

Sunday 1 November 2015

चाँद को मैं खिड़की से देखती रही....!!!

रात चाँद को..
मैं खिड़की से देखती रही....
इक यही तो है,
जो हम दोनों को जोड़ता है..
इक दुसरे से...
तुम भी यूँ ही देखते होगे,
चाँद को,
मैं चाँद में तुम्हारी छवि देखती रही...
रात चाँद को..
मैं खिड़की से देखती रही....
रात चाँद की चाँदनी में,
तुम्हारे ख्यालों को बुनती रही,
तुम्हारे सीने पर सर रख कर,
तुम्हारी धड़कनो को सुन कर,
गीत कोई लिखती रही...
रात चाँद को..
मैं खिड़की से देखती रही....
मैं जहाँ भी चलु,
चाँद मेरे साथ-साथ चलता रहा...
चाँद मुझे ढूंढता रहा,
मैं चाँद से लुका-छिपी खेलती रही...
रात चाँद को..
मैं खिड़की से देखती रही....
कभी चाँद के बहाने,
तुम भी आ जाना,
हर रोज मैं ये संदेसा...
तुम्हे भिजवाती रही...
कि मना ही लेगा,
इक दिन चाँद तुम्हे...
मेरे पास आने को..
मैं हर रोज चाँद को,
अपनी कहानी सुनाती रही...
रात चाँद को..
मैं खिड़की से देखती रही....!!!