203.
अंधेरो से कह दो कि..
तुम्हारा आंगन छोड़ दे कि,
मैंने पंक्तियाँ दीयों की लगा दी है....
गमो से कह दो कि,
तुम्हारी देहरी पर ना आये,
कि रौशनी की खुशियाँ सजा दी है....
204.
हाथों में रची महेंदी से...
सब को पता चल जाता है...
कि तुम भी मुझे प्यार करते हो...
बिल्कुल मेरी ही तरह...
205.
मैं तब और भी अकेली हो जाती हूँ..
इक तुम्हारे मिलने से पहले,
इक तुम्हारे मिलने के बाद...
206.
तुम्हारे बिना...जिन्दगी की उलझनों में उलझ कर,
थक कर नींद तो आ जाती है...
वरना इक अरसा गुजरा है...
सुकून से सोये हुये...
207.
फिर इक बार.....
मैं शब्दों को गढ़ लूँ,
कि शब्द अब मिलते नही मुझे...
तुम जो पढ़ लो इक बार,
तो....मैं फिर कविता बन जाऊं.
208.
मेरा तुम्हारी जिन्दगी में होना,
तुम्हारे मन की बात होती है...
तुम्हारा मन है तो मैं हूँ...
मन नही तो मैं नही हूँ...
जब कि...
तुम्हारा मेरी जिन्दगी में होना,
जिन्दगी में साँसों का होना होता है..
तुम हो तो जिन्दगी है,
तुम नही तो जिन्दगी भी नही...
209.
कभी सोचती हूँ कि क्यूँ ना,
इक शाम तुम्हारे नाम कर दूँ....
इक शाम जो तुम्हारे साथ,
गुजारी तो महसूस किया....
क्यूँ ना...
इक जिन्दगी तुम्हारे नाम कर दूँ....
ब्लॉग बुलेटिन टीम की ओर से आप सब को गोवर्धन पूजन के अवसर पर हार्दिक शुभकामनाएं|
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, गोवर्धन पूजन की हार्दिक शुभकामनाएं - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (14-11-2015) को "पञ्च दिवसीय पर्व समूह दीपावली व उसका महत्त्व" (चर्चा अंक-2160) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुन्दर भावपूर्ण रचना
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ...
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