यूँ ही इक दिन खिड़की से जाने किसे जाते,
देर तक देखती रही....दूर तक देखती रही......
ख्यालो में खोई थी या,
खुद के अन्दर उठे सवालों में उलझी थी
मन आवाज़ दे रहा था,
पर मौन खड़ी अपलक खिड़की से उसे जाते,
देर तक देखती रही....दूर तक देखती रही.....
मेरे अन्दर से कुछ जा रहा था,
शायद मुझे छोड़ कर
रूठ गयी थी मैं खुद से...
मैं रोक लेना चाहती थी,
मना लेना चाहती थी खुद को,
जाने किस कशमकश में खड़ी उसे जाते,
देर तक देखती रही....दूर तक देखती रही.....
कुछ सवाल थे उसके,
जिनके जवाब मैं नही दे पायी थी
मैं क्यों रोकना चाहती हूँ उसको
मैं नही कह पायी थी...
मेरी हर कोशिश नाकाम हो गयी......!!!
यूँ ही इक दिन खिड़की से उसे जाते
देर तक देखती रही....दूर तक देखती रही.....