Wednesday 28 October 2015

मैं तो पिया सी हो गयी....!!!

करके मैं साजों श्रृंगार...
माथे पर उनके नाम का सिंदुर,
गले में उनकी बाहों का हार...
मैं आईना बना कर,
उनकी आखों में खो गयी..
रे सखी...
मैं तो पिया सी हो गयी....
हाथों में रचा कर,
उनके नाम की महंदी,
होटों पर सजा कर,
उनके नाम की लाली...
मैं तो सावरें की छवि में खो गयी,
रे सखी...
मैं तो पिया सी हो गयी....
पहन कर पैरो में पयाल..
की छम-छम ,
पहन तुम्हारे नाम के कंगन,
मैं रंग बिरँगी चूड़ियों में खो गयी...
रे सखी....
मैं तो पिया सी हो गयी....
कर सारे सोलह श्रृंगार,
कि अब दिख जाये चाँद,
लो मैं उनके लिए तैयार हो गयी,
कह दूंगी...चाँद से भी आज कि,
मैं पिया सी हो गयी..!!!

Thursday 22 October 2015

मैं फिर कविता बन जाऊं...!!!

फिर इक बार..
तुम्हारे काँधे पर सर रख,
कर सो जाऊं...
बहुत थक गयी हूँ,
जिन्दगी की जद्दोजहद से,
कि अब और नही...
तुम जो सम्हाल लो..
तो सुकून पाऊं....
फिर इक बार...
तुम्हारी उँगली थाम कर चलना सीखूं,
अब मंजिल मुझे दिखती नही..
तुम जो चलो साथ मेरे,
तो मैं मंजिल पाऊं...
फिर इक बार...
मैं तुम्हारा आईना बन जाऊं...
कि मैं अब खुद को देखती नही हूँ...
तुम में खुद को देख लूँ,
तो फिर मैं सवंर जाऊं...
फिर इक बार.....
मैं शब्दों को गढ़ लूँ,
कि शब्द अब मिलते नही मुझे...
तुम जो पढ़ लो इक बार,
तो....मैं फिर कविता बन जाऊं...!!!

Tuesday 20 October 2015

तुममे नया ढूंढ ही लेती हूँ...!!!

इक कुम्हार की तरह,
हर रोज गढ़ती हूँ..
तुम्हारे ख्यालो के शब्दों को...
और इक नयी अकृति देती हूँ...
भले इक वक़्त गुजर गया हो,
हमारे रिश्ते को...
मैं कुछ ना कुछ,
तुममे नया ढूंढ ही लेती हूँ...
मैं हर रोज...
तुम्हारी आँखों को पढ़ती हूँ,
खामोश रहती है...पर,
मैं सारे ऱाज समझती हूँ...
भले ही इक वक़्त के साथ,
कुछ कमजोर हो गयी हो,
मेरी नजर पर,
मैं तुम्हारी आँखों में...
कुछ धुंधला सा पढ़ ही लेती हूँ....
मैं हर पल तुम्हारे साथ,
गुजरे लम्हों को संजोती हूँ,
वक़्त तेज और तेज बढ़ता ही जाता है,
फिर भी...मैं कलाई पर,
घड़ी की तरह बांध लेती हूँ..
भले ही..
इक अरसा गुजर गया हो,
उन लम्हों का..
पर मैं तुम्हारे साथ...
इक-इक लम्हे में,
कई जिन्दगी जी लेती हूँ...
इक कुम्हार की तरह,
हर रोज गढ़ती हूँ..
तुम्हारे ख्यालो के शब्दों को...
और इक नयी अकृति देती हूँ...
भले इक वक़्त गुजर गया हो,
हमारे रिश्ते को...
मैं कुछ ना कुछ,
तुममे नया ढूंढ ही लेती हूँ...!!!

Wednesday 14 October 2015

कुछ बिखरी पंखुड़ियां.....!!! भाग-22

196.
तुम्हारी याद आयी तो,
यूँ लगा कुछ टूटता है मन में..
तुम बिन जैसे बरसती बारिश के साथ भी...
प्यासा हो मेरा मन...

197.
लोग मुझे मेरी कविताओं से जाने..
मेरे पढ़ने के अंदाज से नही...
तुम तो मुझे पढ़ ही लोगे...
अपने अंदाज में...

198.
कविता कहाँ किसी की होती है..
जो जैसे पढ़ता है..
इसको ये तो वैसे ही..
उसी की होती है.....

199.
अब मेरी तमन्ना है ये..
गर जन्म मुझे मिले....
तू श्याम बने मेरा..
मैं राधा बनू तेरी...

200.
दो ही वजह है मेरे लिखने की....
तुम्हारे लिये ही मैं लिखती हूँ...
और तुम ही हो जो..
मुझसे लिखवा लेते हो....

201.
अक्सर कुछ लोग बड़े मौके 
के इन्तजार में...
छोटे-छोटे लम्हे खो देते है..

202.
मैं अकेले कुछ लिख नही सकती, 
पर हाँ...तुम कुछ अधुरा सा तो लिखना...
यक़ीनन...
मैं उसे पूरा कर दूंगी...


कुछ बिखरी पंखुड़ियां.....!!! भाग-21

186.
बहुत मुमकिन है...
मैं खुद को खो दूँ...
तुम्हे पाने के बाद.....

187.
मैं चाहती हूँ...
मैं वक़्त बन जाऊं...
तुम्हारे पास वक़्त नही...
और मैं तुम्हारी मुट्ठी से,
रेत की तरह फिसल जाऊं...

188.
इक टूटन सी होती है..
ना दर्द ठहरता है...
सिर्फ घड़ी की सुइयां चलती है..
ना वक़्त गुजरता है...

189.
कभी कुछ ऐसा भी होता है...
जो लिखा नही जा सकता....

190.
होटों से लब्जों को कलम में...
उतार लेती हूँ....
बस यू ही लब्ज़-दर-लब्ज़,
कविता सवांर देती हूँ....

191.
क्यों ना आज...
मैं कुछ ऐसा लिख दूँ...
जो तुमने महसूस..
भी ना किया हो...


192.
यह फर्क था तुम में..
और मुझमें....
तुम मुझे...
दुनियादारी समझाते रहे...और
मुझे सिर्फ...
प्यार ही समझ आता था...

193.
मैं तुम्हारे खतो के जवाब...
के इंतजार में...
हर रोज इक नया...
खत लिखती हूँ...

194.
ठंडी हवाये है...
प्यार सा मौसम है...
बारिश है...बुँदे है....
तुम हो...मैं हूँ...
मैं हूँ..तुम हो..
मुझमे तुम हो..तुममे मैं हूँ...

195.
इन्टरनेट और मोबाइल की दुनिया में..भी...
मैं तुम्हे हर रोज खत लिखती हूँ...
तुम्हे भेज दूंगी इक दिन...
जो मैं कह नही पाती हूँ तुमसे...
खतो में वो सब लिखती हूँ....

Monday 12 October 2015

प्यार यूँ ही जिन्दा रहे...!!!

मैं चाहती हूँ कि ...
जब तुम साठ के हो...
और रहूँ पच्पन की..
तब भी हमारे बीच,
प्यार यूँ ही जिन्दा रहे...
तब भी तुम मुझसे,
कुछ सुनने को बेताब रहो...
मैं कुछ तुमसे कहने,
को बेचैन रहूँ...
प्यार यूँ ही जिन्दा रहे...
गुजरते वक़्त और,
बढ़ती उम्र के साथ..
प्यार और भी गहरा हो जाये...
तब भी जब कभी,
तुम्हारी नजरे..मेरी नजरो से,
यूँ टकराये तो...
हजारो अफ़साने कह जाये...
नजरो का वो..
पहला प्यार जिन्दा रहे....
तब भी...
कुछ याद रहे ना रहे,
मेरी चूड़ियों की खनक से ही,
तुम्हारी नींद खुले,...
तब भी तुम्हारी उँगलियाँ,
जो मेरी उंगलियो में उलझे,
तो कुछ अनछुआ सा कह जाये...
हमारी छुअन का....
वो एहसास जिन्दा रहे....
तब भी कोई और मिठास,
जुबां पर चढ़ ना पाये...
जो मेरे हाथो की,
बनायीं चाय में हो...
उम्र की दूरियां हो जाये,
सफ़र में कही शायद,
मैं ओझल हो जाऊं...
पर जब कोई चाय की प्याली,
तुम्हारे होटों को छुए,
तो हर बार मेरी वो पहली सी,
मिठास तुमको छू जाये....
वक्त के गहराते प्यार की,
वो मिठास जिन्दा रहे...
मैं चाहती हूँ कि ...
जब तुम साठ के हो...
और रहूँ पच्पन की..
तब भी हमारे बीच,
प्यार यूँ ही जिन्दा रहे...!!!

Saturday 10 October 2015

इक शाम..तुम्हारे साथ हो...!!!

बस यूँ ही....इक शाम..
तुम्हारे साथ हो...
जो ख्यालो में भी ना हो,
ऐसी कोई बात हो...
बस यूँ ही..इक शाम...
तुम्हारे साथ हो...
तुम कहो कुछ...
कुछ कहूँ मैं...
सभी शिकायते मेरी हो,
सभी नादानियाँ मेरी हो...
मैं रूठती रहूँ.....
तुम मुझे मानते रहो..
इक शाम सभी गुस्ताखियाँ,
मेरी माफ़ हो..
बस यूँ ही...इक शाम...
तुम्हारे साथ हो...
तुम्हारे हाथो में...
मेरा हाथ हो,
खामोशियों की हमारे बीच बात हो..
इक शाम मेरी मुस्कराहट..
तुम्हारे हर सवाल का जवाब हो...
बस यूँ ही....इक शाम..
तुम्हारे साथ हो...
इक शाम मेरी धड़कनो की,
तुम्हारी धड़कनो से बात हो...
ना लबों को हो इजाज़त,
कुछ कहने की..
सिर्फ इशारो में...
जाहिर जज्बात हो..
बस यूँ ही....इक शाम..
तुम्हारे साथ हो...!!!