Tuesday 20 October 2015

तुममे नया ढूंढ ही लेती हूँ...!!!

इक कुम्हार की तरह,
हर रोज गढ़ती हूँ..
तुम्हारे ख्यालो के शब्दों को...
और इक नयी अकृति देती हूँ...
भले इक वक़्त गुजर गया हो,
हमारे रिश्ते को...
मैं कुछ ना कुछ,
तुममे नया ढूंढ ही लेती हूँ...
मैं हर रोज...
तुम्हारी आँखों को पढ़ती हूँ,
खामोश रहती है...पर,
मैं सारे ऱाज समझती हूँ...
भले ही इक वक़्त के साथ,
कुछ कमजोर हो गयी हो,
मेरी नजर पर,
मैं तुम्हारी आँखों में...
कुछ धुंधला सा पढ़ ही लेती हूँ....
मैं हर पल तुम्हारे साथ,
गुजरे लम्हों को संजोती हूँ,
वक़्त तेज और तेज बढ़ता ही जाता है,
फिर भी...मैं कलाई पर,
घड़ी की तरह बांध लेती हूँ..
भले ही..
इक अरसा गुजर गया हो,
उन लम्हों का..
पर मैं तुम्हारे साथ...
इक-इक लम्हे में,
कई जिन्दगी जी लेती हूँ...
इक कुम्हार की तरह,
हर रोज गढ़ती हूँ..
तुम्हारे ख्यालो के शब्दों को...
और इक नयी अकृति देती हूँ...
भले इक वक़्त गुजर गया हो,
हमारे रिश्ते को...
मैं कुछ ना कुछ,
तुममे नया ढूंढ ही लेती हूँ...!!!

2 comments:

  1. बेहद खुबसूरत कविता ...
    वक़्त तेज और तेज बढ़ता ही जाता है,
    फिर भी...मैं कलाई पर,
    घड़ी की तरह बांध लेती हूँ..
    भले ही..
    इक अरसा गुजर गया हो,
    उन लम्हों का..
    पर मैं तुम्हारे साथ...
    इक-इक लम्हे में,
    कई जिन्दगी जी लेती हूँ....

    ReplyDelete
  2. Start self publishing with leading digital publishing company and start selling more copies
    self publishing india

    ReplyDelete