Saturday 26 September 2015

किसी मंदिर सा था...हमारा प्रेम...!!!

किसी मंदिर सा था...
हमारा प्रेम...
अखंड था...
मंदिर में स्थापित...
मूरत सा था..हमारा प्रेम...
धुनों में गूंजता था...
मंदिर में बजती...
घंटियों सा था..हमारा प्रेम...
भावो को वयक्त करता था..
मंदिर में इक सुरों में गाता...
आरती सा था हमारा प्रेम...
पहरों में इन्तजार था..
मंदिर में लम्बी कतार में..
एकटक दर्शन को...
जोहता सा था हमारा प्रेम...
निश्छल निर्दोष था..
मंदिर में खुद को..
समर्पर्ण करता सा था हमारा प्रेम...
शाश्वत जीत सा था..
मंदिर में मांगी...
दुआ सा था हमारा प्रेम...
किसी मंदिर सा था...
हमारा प्रेम...!!!

Tuesday 22 September 2015

जब से तुमसे मिली...मैं प्रेम को लिखने लगी...!!!

जब से तुमसे मिली...
मैं प्रेम को लिखने लगी...
जब तुम्हारी आखों की,
गहराईयों में उतरी तो...
अंतहीन..अद्रश्य...
प्रेम को मैं लिखने लगी...
जब तुम्हारे स्पर्श को,
महसूस किया..
अनछुए-अनकहे...
प्रेम को लिखने लगी...
जब से तुम्हारी खुसबू बन कर,
तुम्हारी साँसों में...
घुलने लगी..
हवाओं में भी...
प्रेम की धड़कने सुनने लगी..
कि धड़कने...
प्रेम की लिखने लगी...
जब से तुम्हारी....
खामोशियों का हिस्सा मैं बनी..
प्रेम की कहानी-किस्से..
मैं लिखने लगी...
मैं प्रेम को लिखने लगी...
जब से तुम्हारी करवटो की,
बेचैनी मैं बनी...
तन्हाईया प्रेम की..
मैं लिखने लगी...
जब से तुम्हारी उदासियों को,
समझने लगी...
जुबां....प्रेम की...
मैं लिखने लगी...
जब से तुम्हारे साथ...
तय सफ़र करने लगी..
मंजिले...प्रेम की....
मैं लिखने लगी....
जब से तुम पर..
विश्वास करने लगी..
प्रेम को...मैं शाश्वत लिखने लगी....
जब से तुमसे मिली...
मैं प्रेम ही प्रेम लिखने लगी....!!!

Friday 18 September 2015

तलाशते है फिर..मेरे शब्द तुम्हे...!!!

तलाशते है फिर..
मेरे शब्द तुम्हे...
तुम नही हो,तो
कुछ लिखते ही नही...
यूँ कि हर बार शब्द पिरोते थे,
सिर्फ तुम्हे....
कि तलाशते फिर..
मेरे शब्द तुम्हे....
ये तो लिखते थे..
तुम्हारे चेहेरे की उदासियाँ,
तुम्हारी आखों की गहराइयाँ...
कि तुम नही हो तो,
शब्द पहचानते नही मेरी भी..
परछाईयाँ....कि
इन शब्दों को..
तुम्हारी खामोशियों को...
समझने का हुनर था..
जिसे तुम लब्ज़ नही दे पाते थे,
वो शब्द बन कर...
कागज पर उतरते थे...
ये शब्द ही तो है..
जो तुम्हे लिख कर..
मेरे दिल में उतरते जाते है...
तलाशते है फिर..
मेरे शब्द तुम्हे...!!!

Tuesday 1 September 2015

कुछ बिखरी पंखुड़ियां.....!!! भाग-20

176-
ये मौसम कह रहा है...
कही तो खूब बरसा है ये बादल..
कोई भीग रहा है,तर-बतर....
तो कोई इक बूंद को भी तरस रहा है आज कल...

177-
रात किसी के ख्वाब को,
आखों में भर कर,
जागती रही मेरी आखें....
मैं खामोश थी,
ना जाने कितने ही, 
सवालो का जवाब..
मांगती रही तुम्हारी आखें...

178-
नही जानती कि सपनो का राजकुमार कैसा होता है...
नही पता कि सपनो का राजकुमार कैसा होगा...
यक़ीनन कोई आम चेहरा ही...
सपनो के राजकुमार जैसा होगा....

179-
आ चुपके से तुम्हारे कानो में कुछ ऐसा बोल दूँ....
कि तुम मुस्कराते हुए अपनी आँखे खोल दो...

180-
डर है कि ये बारिश...
मेरा सब कुछ बहा न ले जाये.....

181-
बारिश की बुँदे.....और
तुम्हारी आखों से बरसता हुआ प्यार,
कैसे कहूँ किसने.....मुझे ज्यादा भिगोया है....

182-
मैं तुम्हे लिखती रही...
अपनी कविताओं में....
और तुम हमेसा रहे..
मेरी अलिखित पंक्तियों में.....

183-
बहुत खास है वो नज़र.....
जिन नजरो को मैं खास लगती हूँ......

184-
मैं इसलिये नही लिखती कि
मुझे लिखना अच्छा लगता है...
मैं इसलिए लिखती हूँ कि 
तुम्हे पढ़ना अच्छा लगता है....

185-
क्यों ना आज मैं कुछ ऐसा लिख दूँ....
जो तुम्हे बैचैन भी कर जाये...
और सुकून भी दे जाये.....

कुछ बिखरी पंखुड़ियां.....!!! भाग-19

166-
साथ तुम्हारा दूर उदासी
फैला दो ना बाहें अपनी
सच मैं धड़कन हो जाउंगी.....

167-
तेरी बातो से मेरी..
हर इक रचना रच जाती है...
कविता तो मैं लिखती हूँ...
कविता जैसी बाते..
तुमको आती है...

168-
मैं तुम्हे तलाश करूँ...
और तुम मुझे मिल जाओ...
इतनी तो आसान नही जिन्दगी...

169-
कई ख़त तुम्हारे लिये..
मैंने इस साल लिखे....
तुम्हारे उलझे हुए जवाब...
अपने अधूरे सवाल लिखे...
कई ख़त तुम्हारे लिये..
मैंने इस साल लिखे...
कुछ शिकायतो के दिन लिखे..
कुछ महीनो के प्यार लिखे...
कुछ तुम्हारी शरारते लिखी..
कुछ खुबसूरत ख्याल लिखे....

170-
अपने लिखे दो शब्दों से..
हर रोज तुम्हारी जिन्दगी में...
मिठास घोलने की...
कोशिश करती हूँ मैं....

171-
मैंने तुम्हे उस दिन पा लिया...
जिस दिन तुम्हे...
मुझे खो देने का डर महसूस हुआ....

172-
जब भी देखा खुद को दर्पन में...
होटों पर मुस्कान तुम्हारी थी..
हाथो में कंगन तुम्हारे नाम के थे..
आखों में तस्वीर तुम्हारी थी...
क्या कहती मैं..पगली..कि 
इस "सावन"में मन "साजन" हो गया..

173-
लम्हों में जो एक लम्हा था,
तुम्हारी उँगलियों में उलझी थी...
जो उँगलियाँ मेरी..
उनको सुलझाकर लिखना आसान नही....

174-
सावन की बारिश हो..
महेंदी से महकती 
हमारी हथेलियाँ हो....
फिर लौट आये...
वो हमारी बाते...
वो मस्तियां...और मेरी सहेलियाँ...

175-
पूरी दुनिया मुझे पढ़े तो क्या....
ग़र तुम मुझे ना पढ़ो तो ...
मुझे लिखना भला नही लगता...!!!