Thursday 30 July 2015

तुम्हारी मजबूरियां.....!!!

मुझे आज भी याद है...
वो दिन...
जब तुम अब मेरा,
साथ नही दे पाओगे..
तुम मुझे छोड़ कर जाने की,
अपनी सारी मजबूरियाँ,
बता रहे थे...
भविष्य में होने वाली
सम्भावनाए..
जो मुझे नही पता की,
होंगी कि नही..
पर तुम्हे यकीन था..
उन्ही सब का वास्ता दे कर...
तुम मुझे छोड़ कर जाने की,
मजबूरियाँ बता रहे थे...
मैं सुन रही थी तुम्हे...
तुम्हारी मजबूरियों को सुन कर
अन्दर ही अन्दर टूट रही थी...
और ढूंढ  रही थी,
कुछ तुम्हारी बातो में,
तुमने अपने सभी,
टूटे सपनो के बारे में तो बताया,
पर एक भी मेरे साथ देखे,
सपने का जिक्र भी नही किया...
इक पल को लगा,
तुम्हारा मेरे साथ होना भी
कोई तुम्हारी मज़बूरी है...
पर मैं अब भी तुम्हारे साथ थी..
इसलिए नही कि,
मैं मजबूर थी..
बल्कि इसलिए की,
मुझे यकीन था खुद पर..
कि ग़र हम साथ होंगे,
तो सम्हाल लेंगे,
जिन्दगी के हालातो को...
हो सकता है कि कई बार,
हम जिन्दगी में हार भी जाये,
पर ग़र हार भी गये तो,
हम रहंगे साथ..
उस हार का जशन,
मनाने के लिये...
मैं कुछ कहती कि,
तुमने कह दिया कि,,
तुम समझोता कर रही हो..
इतना भी समझोता,
नही करना चहिए...
इक पल और मेरा खुद पर किया,
सारा गुरुर चकनाचूर हो रहा...
तुमने प्यार को समझोता,
नाम दे दिया...
तुम्हारी मजबूरियों के साथ,
आज मेरा सब कुछ बह गया....!!!

Wednesday 29 July 2015

सागर,इतना खारा क्यों है...!!!

फिर वही अलसायी सी शाम...
और इक भार सी लगती..
मुझे मेरी साँसे...
हाँ तुम्हारे बिना..
मुझे जीना भी,
भारी सा लगता है...
मैं यूँ ही बेचैन सी..
ना जाने क्या सोचते -सोचते,
सागर के किनारे आ गयी...
शायद कुछ कहना था..
इक बोझ सा था दिल पर..
तुमसे शिकायतों का..
तुम्हारी शिकायतों का...
कहना चाहती थी तुमसे...
पर तुम सुनना नही चाहते थे..
तो तुमसे शिकायते हो गयी....
हाँ कभी जबरदस्ती,
कह दी जो बाते..
यूँ बे-वजह तुम्हे परेशान किया...
तो मुझसे तुम्हारी शिकायते हो गयी....
कब से इन शिकायतो की गठरी,
को ले कर मैं घूम रही थी..
आज इस सागर में..
इस बोझ को बहा दिया...
कह दिया मन का सारा गुबार..
खाली मन से सागर को,
देख कर मैं मुस्करायी..
मुझे देख कर,
सागर भी मुस्करा दिया...
आज समझा सागर,
इतना खारा क्यों है...
हम जैसे कितनो के आंसुओ को,
ये खुद में मिला लेता है..
इक लहर जो छु कर,
समाती है जो उसमे..
तो खुद भी मुस्करा देता है...!!!

Saturday 25 July 2015

तुम्हारे साथ तारो को गिनना....!!!

छत पर लेटे-लेटे तारे गिनने की
नाकाम कोशिश कर रही थी...
शर्त लगी थी खुद से,
क्या मैं तुम्हारे बिना तारे...
नही गिन सकती हूँ...
क्यों नही कर सकती हूँ..
मैं करके रहूंगी....
पर तुम नही तो...
जैसे गिनतिया ही भूल गयी हूँ...
जहाँ से शुरु करती हूँ..
वही फिर वापस आ जाती हूँ...
तुम नही हो तो...
ये तारे भी मेरा साथ..
नही दे रहे है..
बादलों में छुप कर,
आँख मिचौली खेल रहे है....
तुम नही हो तो चाँद भी...
रूठ कर छिप गया है कही...
सोचती हूँ कि इस बार...
जब चाँद से बात करुँगी,
तो तुम्हारी सारी,
शिकायते करुँगी...
पर देखो ना..
चाँद भी मेरे शिकायते नही,
सुनना चाहता है...
ये चाँद ये तारे कभी,
जो मेरे हुआ करते थे....
सभी तुम्हारे हो गये है...
तुम नही हो तो,
मुझसे बाते भी नही करते है...
सच ही मैं खुद से लगी,
शर्त हार  गयी हूँ...
मेरा हारना ही,
मुझे मेरी जीत लग रहा है...
सच्ची ये चाँद..
ये तारे तुम्हारे साथ ही,
अच्छे लगते है...
और यकीनन मैं भी,
इन्हें तुम्हारे साथ ही..
अच्छी लगती हूँ....
नामुमकिन नही लगता,
तुम्हारे साथ तारो को गिनना....!!!

Thursday 23 July 2015

तुम्हारे नाम लिखे सारे ख़त....!!!

तुम्हारे नाम लिखे सारे ख़त,
मैं आज भी दराज से,
निकालने में डरती हूँ..
मैं खो ना जाऊं...
कही उनके लब्जों में,
अनदेखा करके...मैं आज भी,
उस अलमारी के पास,
से गुज़रती हूँ...
तुम्हारे नाम लिखे सारे ख़त....
हाँ कई बार आया है,
ये ख्याल जहन में,
कि निकाला है जिस तरह से,
तुम्हे जिन्दगी से..
इन खतों को क्यों नही,
निकाल फेकती हूँ...
हाथ जब भी बढाती हूँ,...
कर नही पाती हूँ..
तुम्हारे खतो की खुशबू से,
जैसे मेरी साँसे चलती है...
तुम्हारे नाम लिखे सारे ख़त...
कई बार सोचती हूँ..
इक बार पढ़ लूँ...
तुम्हारे खतो को....
इक बार जी लूँ......
तुम्हारे लब्जों को..
डरती हूँ कि......
जो इस बार तुम्हे पढ़ लिया,
तो ना फिर...
तुम्हे छोड़ पाऊँगी...
इक बार जो मुड़ कर देखा,
जो तुम्हे...
तो फिर ना आगे बढ़ पाउंगी...
अनदेखा करके मैं,
आज भी अलमारी के,
पास से गुजरती हूँ...
तुम्हारे नाम लिखे सारे ख़त....

Tuesday 21 July 2015

उस घाट पर जाती हूँ...!!!

मैं आज भी..
उस घाट पर जाती हूँ...
ऊपर से नीचे जाती हुई सीढ़ियों पर
किसी पर बैठ जाती हूँ...
सबसे नजरे बचा कर,
मैं उन सीढ़ियों से धीरे से...
पूछ लेती हूँ..
कि कही मेरे जाने के बाद,
तुम वहाँ आये तो नही थे...
घंटो उन सीढ़ियों पर बैठ कर,
मैं उस नदी को देखती रहती हूँ,
कि कभी तो..
उसमे हलचल होगी...
और मेरे सवालो के जवाब,
मुझे मिल जायेंगे....पर
ना उस नदी में,
कोई हलचल होती है...
ना ही सीढ़ियों से,
कोई जवाब  मिलता है...
मैं मौन भारी मन से,
चली आती हूँ..
इस इन्तजार में...कि
कभी तो...
मेरे सवालो से टकरा कर,
ये सीढियाँ बोल उठेंगी..
कभी तो मेरे टूटने से पहले,
उस नदी का मौन टूटेगा....!!!

इस बार जब सावन आये.....

सुनों...इस बार..
जब सावन आये...
तब तुम मुझे,
झूला-झुला देना ....
डरती हूँ गिरने से मैं..
ज्यादा तेज नही,
धीरे-धीरे झुला देना...
सुनों...इस बार..
जब मुझे नींद ना आये...
तो तुम मुझे,
थपकी दे कर सुला देना...
गर फिर भी..
मुझे नींद ना आये..
तो फिर कोई धुन,
गुनगुना देना...
सुनो...इस बार..
ग़र मैं रूठ जाऊं..
तो मुझे मना लेना...
फिर ग़र मैं ना मानूं..
तो मुस्करा कर,
गले से लगा लेना...
सुनों...इस बार...
ग़र कही मैं
बिखर जाऊं..
तो तुम मुझे सम्हाल लेना..
फिर भी गर ना चल पाऊं...
ऊँगली पकड़ मेरी,
मुझे चलना सीखा देना....
सुनो...इस बार...
ग़र मेरी आखों में,
आसूं आये..
तुम उनको रोक लेना..
फिर गर ना रुके आँसू....
अपने होटों की छुअन,
मेरी पलकों पर सजा देना...
सुनों...इस बार..
जब तुम,
मुझसे दूर जाना..
मुझे ख़त लिखना...
सीखा देना...
फिर ग़र कभी..
ख़त तुम्हे जब ना मिले मेरा..
तो तुम बिन जीना मुश्किल है...
सब कुछ छोड़ कर चले आना...
सुनों...इस बार...
जब सावन आये.....

Thursday 16 July 2015

सब कुछ तो कह दिया तुमसे....!!!

सब कुछ तो कह दिया तुमसे,
अब तुमसे भी...
कुछ सुनना चाहती हूँ...
तुमसे बिछड़ कर जो उदासी है,
मेरे चहेरे पर..
वही बचैनी तुममें भी..
देखना चाहती हूँ...
सब कुछ तो कह दिया तुमसे,
अब तुमसे भी...
कुछ सुनना चाहती हूँ...
अनकहा सब कुछ लिख दिया मैंने,
कुछ अनछुआ सा तुमसे भी,
महसूस करना चाहती हूँ...
सब कुछ तो कह दिया तुमसे,
अब तुमसे भी...
कुछ सुनना चाहती हूँ...
ढलती शामों का एहसास..
जागती रातो का राज..
सब कुछ तो दे दिया तुम्हे..
अब तुमसे भी कुछ,
मांगना चाहती हूँ....
सब कुछ तो कह दिया तुमसे,
अब तुमसे भी...
कुछ सुनना चाहती हूँ......!!!

Wednesday 15 July 2015

वो किताब...!!!

आखिर मैंने ढूंढ ही ली...
वो किताब,
जिसको तुमसे मांगने,
और तुम्हारे देने..में..
इक रिश्ता बनाया था...
हमारे बीच...
वक़्त की गहराइयों में,
कही खो गयी थी...
वक़्त की धुल में...
इस कदर लिपटी की..
पहचाना भी मुश्किल था...
आखिर मैंने ढूंढ ही ली..
वो किताब...
आज भी जब मैंने..
वो किताब खोली,
तो वही जानी-पहचानी..
खुशबू बसी थी..
उसके हर पन्ने पर...
आज भी जब उस पर...
लिखे शब्दों को,
मेरी उँगलियों ने छुआ तो,
किसी की उँगलियों का,
एहसास करा गयी..
वो किताब...
आखिर मैंने ढूंढ ही ली..
वो किताब...
आज भी जब मेरे होंटों ने,
उस पर लिखे शब्दों को पढ़ा...
तो जैसे कोई धुन सुना गयी..
वो किताब...
आखिर मैंने ढूंढ ही ली..
वो किताब...
जिसमें कही छिपा कर रखा,
हुआ सूखा गुलाब,
किसी की बेवजह बातो का,
जिक्र करता है...
किताब का पलटता हर पन्ना,
किसी के साथ गुजरी हुई,
शामों का जिक्र करता है...
फिर किसी की याद दिला गयी..
वो किताब...
आखिर मैंने ढूंढ ही ली...
वो किताब...
जिसमे मेरी सांसो की,
चलने की वजह थी...
जिसमें मेरी धड़कनो के,
धड़कने का सबब था...
आखिर मैंने ढूंढ ही ली...
वो किताब...!!!

Tuesday 14 July 2015

मैं तो तुम्हारी राधा बनूँगी...!!!

मैं नही तुम्हारे साथ...
किसी सफ़र पर चलूँगी...
मैं नही तुम्हारे साथ...
जिन्दगी भर रहूंगी...
मैं तुम्हारा एहसास बनूँगी...
मैं तो तुम्हारी राधा बनूँगी....
मैं नही तुम्हारे साथ..
चाँद को देखूंगी..
मैं नही तुम्हारे साथ..
किसी सुबह में रहूंगी...
मैं बनके मुस्कान....
तुम्हारे होटों पर रहूंगी...
मैं तो तुम्हारी राधा बनूँगी....
मैं नही तुम्हारे साथ...
बारिशो में भीगुंगी..
मैं तो तुम्हे छूती..
बूंदों में रहूंगी...
मैं तो तुम्हारी राधा बनूँगी....
मैं नही तुम्हारी किसी खुशी में..
शामिल रहूंगी..
ना ही तुम्हारे किसी पुरे होते..
सपने का हिस्सा ही बनूँगी..
मैं तो तुम्हारी बंद आखों के...
सपनो में रहूंगी..
मैं तो तुम्हारी राधा बनूँगी....
मैं नही तुम्हारे पन्नो पर,
बिखरे शब्दों में रहूंगी....
मैं तो तुम्हारे...
अनकहे ख्यालों में रहूंगी..
मैं नही तुम्हारे..
जवाबों में रहूंगी...
मैं तो तुम्हारी आपस में,
उलझती उँगलियों के..
सवालो में रहूंगी...
मैं तो तुम्हारी राधा बनूँगी...!!!

Sunday 12 July 2015

डायरी में बंद सपने मेरे......!!!

फिर आज किताबो के ढेर में..
इक पुरानी डायरी कही दबी हुई मिली....
याद नही कि कब लिखी थी,
हाँ शौक तो था,
मुझे डायरी लिखने का...
हर दिन की बाते..
मैं इस डायरी में लिखा करती थी....
इक पन्ना पलटा..
तो टेड़े मेढ़े अक्षरों में...
मैंने अपना नाम लिखा था...
हँसी आयी कि,
कितनी खराब लिखावट थी मेरी...
इक और पन्ना पलटा तो..
कुछ नाराजगी से भरी से,
कुछ लाइन लिखी थी..
लिखी थी कि...
माँ मुझसे प्यार नही करती,
हर रोज मुझे स्कूल भेज देती है...
कितनी नादान थी मैं...कि 
वही बचपन की मुस्कान मेरे होटों पर आ गयी....
इक और पन्ना पलटती हूँ...
तो लिखा था कि...
मैं बड़ी हो कर डॉक्टर बनूगी...
पढ़ कर थोड़ी उदास हो गयी मैं...
ये सपना तो जैसे भूल गयी थी....मैं ...
और डायरी में लिख कर,
दब कर रह गया था....
मैंने झट से..
वो डायरी बंद कर के रख दी...
इस डर से कि...
ना जाने कितने ही सपने बंद थे,
इस डायरी में...
फिर उस डायरी को,
उसी ढेर में कही दबा कर रख दिया..
मुस्कराते हुए खुद से कहते हुए कि
डायरी में बंद सपने मेरे......!!!

Thursday 9 July 2015

कुछ बिखरी पंखुड़ियां.....!!! भाग-18

156.
मैं खुद को खो दूँ कि इससे पहले तुम मुझे ढूंढ लेना......
157.
क्यों....मैंने कभी कोई सवाल नही किया....
कि तुम्हारे साथ गुजरे लम्हों की उम्र कितनी है
158.
अब जब तुम मुझसे कुछ सुनना चाहते हो....
अफ़सोस...अब मेरे पास कहने को कुछ भी नही है....
159.
कुछ तो था तुम्हारी आँखों में...
कि तुम्हारा मुझे छोड़ कर वो जाते हुए...
वो लम्हा आज तक मेरी आँखों ठहरा हुआ है...
160.
मेरे शब्दों ने तुम्हारी खामोशिया तोड़ी है...
हर बार सवाल तुम्हारी आँखों ने किये है...
हर जवाब में मेरी पंक्तिया बोली है... 
161.
चलो तुम्हे ढूंढते है आज.....
तुम्हारा पता हर गली...
हर राह से पूछते है आज...
162.
जिधर भी देखती हूँ...
मुझे देखती तुम्हारी वो दोनों.. 
आँखे ही दिखायी देती है....
163.
मैं ना तुम्हे खोना नही चाहती...
इसलिये नही की तुम बहुत अच्छे हो...
बल्कि तुम जैसे भी हो,जो भी हो...
मुझे अच्छे लगते हो....
164.
तुम मुझे जीतने की,
इक कोशिश तो करो...
मैं तो खुद को पहले ही,
हार चुकी हूँ....
165.
अक्सर जब सफ़र में होती हूँ...
तो न चाह कर भी जिन्दगी के suffer बारे में सोचती हूँ.. 

कुछ बिखरी पंखुड़ियां.....!!! भाग-17

146.
बारिश की बुँदे.....और
तुम्हारी आखों से बरसता हुआ प्यार,
कैसे कहूँ किसने.....मुझे ज्यादा भिगोया है....
147.
मैं तुम्हे लिखती रही...
अपनी कविताओं में....
और तुम हमेसा रहे..मेरी अलिखित पंक्तियों में.....
148.
बहुत खास है वो नज़र.....
जिन नजरो को मैं खास लगती हूँ......
149.
ह "सुषमा"ही है...
जिसने फैला प्रकाश दिया है...
वह "सुषमा" ही है...
जिसने अंतर्मन के सौन्दर्य से सबका जीत विश्वास लिया है...
किये विचार "सुषमा" पर सबने अलग- अलग ठहराये...
उनमे कौन सही है?
कौन गलत है?
ये कोई कैसे बतलाए..
"सुषमा" को अब अस्तित्व मिल जाने की आशा है..
निश्छल-निर्दोष सिर्फ दो शब्दों से बनती "सुषमा" की परिभाषा है...
150.
मैं इसलिये नही लिखती कि,
मुझे लिखना अच्छा लगता है...
मैं इसलिए लिखती हूँ..
कि तुम्हे पढ़ना अच्छा लगता है.....
151.
क्यों ना आज मैं कुछ ऐसा लिख दूँ....
जो तुम्हे बैचैन भी कर जाये...और सुकून भी दे जाये.....
152.
बादल है...बारिश है...बुँदे है.....सिर्फ तुम नही हो.....
153.
तुम्हारी ख़ामोशी को शब्दों में गढ़ दिया है मैंने....
जो तुम कह नही पाये मुझसे...
वो सब तुम्हारी नजरो में पढ़ लिया है मैनें.....
154.
चलो अब बाते ख़ामोशी की करते है....
बहुत अजीब है ये खामोश हो कर भी बहुत बोलती है....
155.
गर मुमकिन होता तो अपनी..
आखों के ख्वाबो को तुम्हारी पलकों पर रख देती...तुम्हे वो दिखाती जो मैं हर रोज ख्वाबो में देखती हूँ...