Wednesday, 29 July 2015

सागर,इतना खारा क्यों है...!!!

फिर वही अलसायी सी शाम...
और इक भार सी लगती..
मुझे मेरी साँसे...
हाँ तुम्हारे बिना..
मुझे जीना भी,
भारी सा लगता है...
मैं यूँ ही बेचैन सी..
ना जाने क्या सोचते -सोचते,
सागर के किनारे आ गयी...
शायद कुछ कहना था..
इक बोझ सा था दिल पर..
तुमसे शिकायतों का..
तुम्हारी शिकायतों का...
कहना चाहती थी तुमसे...
पर तुम सुनना नही चाहते थे..
तो तुमसे शिकायते हो गयी....
हाँ कभी जबरदस्ती,
कह दी जो बाते..
यूँ बे-वजह तुम्हे परेशान किया...
तो मुझसे तुम्हारी शिकायते हो गयी....
कब से इन शिकायतो की गठरी,
को ले कर मैं घूम रही थी..
आज इस सागर में..
इस बोझ को बहा दिया...
कह दिया मन का सारा गुबार..
खाली मन से सागर को,
देख कर मैं मुस्करायी..
मुझे देख कर,
सागर भी मुस्करा दिया...
आज समझा सागर,
इतना खारा क्यों है...
हम जैसे कितनो के आंसुओ को,
ये खुद में मिला लेता है..
इक लहर जो छु कर,
समाती है जो उसमे..
तो खुद भी मुस्करा देता है...!!!

2 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शुक्रवार 31 जुलाई 2015 को लिंक की जाएगी............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

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  2. बहुत ही सुन्दर भाव है आपकी कविता में।
    स्वयं शून्य

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