Thursday 9 July 2015

कुछ बिखरी पंखुड़ियां.....!!! भाग-17

146.
बारिश की बुँदे.....और
तुम्हारी आखों से बरसता हुआ प्यार,
कैसे कहूँ किसने.....मुझे ज्यादा भिगोया है....
147.
मैं तुम्हे लिखती रही...
अपनी कविताओं में....
और तुम हमेसा रहे..मेरी अलिखित पंक्तियों में.....
148.
बहुत खास है वो नज़र.....
जिन नजरो को मैं खास लगती हूँ......
149.
ह "सुषमा"ही है...
जिसने फैला प्रकाश दिया है...
वह "सुषमा" ही है...
जिसने अंतर्मन के सौन्दर्य से सबका जीत विश्वास लिया है...
किये विचार "सुषमा" पर सबने अलग- अलग ठहराये...
उनमे कौन सही है?
कौन गलत है?
ये कोई कैसे बतलाए..
"सुषमा" को अब अस्तित्व मिल जाने की आशा है..
निश्छल-निर्दोष सिर्फ दो शब्दों से बनती "सुषमा" की परिभाषा है...
150.
मैं इसलिये नही लिखती कि,
मुझे लिखना अच्छा लगता है...
मैं इसलिए लिखती हूँ..
कि तुम्हे पढ़ना अच्छा लगता है.....
151.
क्यों ना आज मैं कुछ ऐसा लिख दूँ....
जो तुम्हे बैचैन भी कर जाये...और सुकून भी दे जाये.....
152.
बादल है...बारिश है...बुँदे है.....सिर्फ तुम नही हो.....
153.
तुम्हारी ख़ामोशी को शब्दों में गढ़ दिया है मैंने....
जो तुम कह नही पाये मुझसे...
वो सब तुम्हारी नजरो में पढ़ लिया है मैनें.....
154.
चलो अब बाते ख़ामोशी की करते है....
बहुत अजीब है ये खामोश हो कर भी बहुत बोलती है....
155.
गर मुमकिन होता तो अपनी..
आखों के ख्वाबो को तुम्हारी पलकों पर रख देती...तुम्हे वो दिखाती जो मैं हर रोज ख्वाबो में देखती हूँ...

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