Tuesday 24 March 2015

कुछ बिखरी पंखुड़ियां.....!!! भाग-15

121.
रंग तेरे प्यार का यूँ चढ़ गया... 
कोई और रंग न चढ़ सका.....

122.
बारिश भी खूब है....
किसी के होटों पर मुस्करा रही है..
तो किसी की आखों से बरस रही है......

123.
इन्तजार का तब अलाम मत पूछिये...
जब कह रहा हो कोई...कि आ रहा हूँ मैं....

124.
मैंने शायद खो दिया है खुद को...
क्यों ना....
मैं कैनवास बन जाऊं..
तुम मुझ पर कोई अक्स उकेर दो..

125.
खोयी हुई चीजो को इक्कठा तो किया जा सकता है...
पर जो खो जाता है..
उसकी भरपाई नही की जा सकती है....

126.
तुम्हारे अक्स को,
अपने शब्दों में उतारना..
अभी बाकी था....
तुम्हारी बाहों में,
मेरा टूट कर बिखरना..
अभी बाकी था....!!

127.
कुछ पल जो मैं,जो तुम्हारे साथ रहूंगी...
मैं तुम्हे अपने हर पल में,
शामिल कर लुंगी...

128.
बेशक मैं तुम्हारी जिन्दगी हूँ...
पर तुम्हारी जिन्दगी के किसी लम्हे में मैं नही हूँ..

129.
तुमको हम दिल में बसा लेंगे...
तुम आओं तो सही...
सारी दुनिया से छुपा लेंगे..तुम आओं तो सही....

130.
जिन्दगी को आसान कर देती है...
तुम्हारी मुस्कराहटे..........

131.
सभी मंजिले तुम्हारी ही है...
मुझे तो सिर्फ तुमको उन तक पहुँचाने रास्ते बनाने है..

132.
हमने हार कर जिन्दगी से सीख लिया....
कि जीतना मायने नही रखता...
लेकिन लड़ना बहुत जरुरी है.....

133.
आज मैं इक धागे में बाँध कर,
उसको सारी दुआए दे आयी हूँ....
खाली हाथ तो मैं भी नही आयी हूँ...
साथ अपने उसकी सारी बलाये ले आयी हूँ.....

134.
तुम भले मुझसे अनजान हो गये...
तुम्हारा शहर आज भी जाना-पहचाना लगता है...
वही तुम तक जाती ये राहें..
आज भी मुझे अपनी ओर खीचती है..
तुमने भले नजरे फेर ली है मुझसे..
तुम्हारे शहर का हर शै मेरी नजरो को बांधती है...

135.
जब भी तुम्हे देखा है...
सब भुला कर..इन आँखों ने सिर्फ मुस्करा दिया है...

कुछ बिखरी पंखुड़ियां.....!!! भाग-14

112.
उजाले बहुत थे..मेरे अंधेरो थे लिये....
फिर भी....ता-उम्र तुम्हारी मुस्कराहट का इंतजार करती रही....

113.
वो मेरे इतने करीब से हो कर गुजरा है...
उसके जाने के बाद भी...
मेरे आस-पास..
इक अरसे तक उसका एहसास बिखरा रहा....

114.
कुछ ख्वाब अधूरे थे...
कुछ बाते पूरी थी...
तुम्हारे साथ प्यार तो पूरा था...
तुम्हारे बिन जिन्दगी अधूरी थी...

115.
मैं दिन...रात...सुबह..शाम...
लिखती रही....
तुम्हारा जिक्र कभी नही किया..
फिर भी हर लब्ज़ में तुम्हारा नाम लिखती रही....

116.
मैं लिखना भूल सी रही थी,
कि तुम याद आ गये...

117.
तुम्हारे साथ ही मंजिल मिले..
ऐसा जरुरी तो नही है....
तुम्हारे बिना भी कोई मंजिल हो ऐसा भी नही है...

118.
तुमसे मिल कर मुझमे...
हर रोज कुछ टूटता है....
तुम साथ रहते हो तो क्या? 
मुझसे हर रोज कुछ छूटता है....

119.
गालों से गुलाल तो कल ही छुट गया था...
पर तुम्हारी हथेलियो का एहसास अभी भी बाकी है..... 

120.
आ जाओ फिर गुलाल लगा दो मुझे...
मैं मना भी करू...
फिर भी तुम अपने रंग में रंग लो मुझे.......

Friday 6 March 2015

तुम्हारी सभी उपलब्धियां निर्थक है....!!!

हे पुरुष..
तुम सदियों से लिखते रहे हो..
स्त्रियों की व्यथा को...
उनके दर्द को...
तुमने दावा किया है...
कि तुम उनकी भावनाओं,
को जस के तस बताया है...
दुनिया को....
तुमने उन पर हो रहे,
अन्याय को लिखा...
तुमने तो स्त्रियों पर लिख-लिख,
कर किताबो के ढेर लगा दिये...
जिसके लिये...
तुम्हे कितने ही सम्मान और,
पुरस्कार मिले है....
पर क्या...?
तुमने ये सोचा...
कि दुनिया भर की स्त्रियों का..
दर्द समझने का..
दावा करने वाले,
क्या तुमने अपने घर की स्त्री
की मन की बात समझी है....?
क्यों तुम्हारे करीब रहते हुए भी...
वो स्त्री अपनी भावनाओं को,
तुम्हे नही समझा पायी....
क्यों उसका दर्द तुम नही देख पाये....
हे-पुरुष...
तुम्हे भले ही कितने,
सम्मान मिले हो...
पर जब तक...
तुम अपने घर की स्त्री की..
आखों में अपने लिए,
सम्मान नही देख पाते हो......
तब तक तुम्हारी सभी..
उपलब्धियां निर्थक है....!!!