Wednesday, 14 October 2015

कुछ बिखरी पंखुड़ियां.....!!! भाग-21

186.
बहुत मुमकिन है...
मैं खुद को खो दूँ...
तुम्हे पाने के बाद.....

187.
मैं चाहती हूँ...
मैं वक़्त बन जाऊं...
तुम्हारे पास वक़्त नही...
और मैं तुम्हारी मुट्ठी से,
रेत की तरह फिसल जाऊं...

188.
इक टूटन सी होती है..
ना दर्द ठहरता है...
सिर्फ घड़ी की सुइयां चलती है..
ना वक़्त गुजरता है...

189.
कभी कुछ ऐसा भी होता है...
जो लिखा नही जा सकता....

190.
होटों से लब्जों को कलम में...
उतार लेती हूँ....
बस यू ही लब्ज़-दर-लब्ज़,
कविता सवांर देती हूँ....

191.
क्यों ना आज...
मैं कुछ ऐसा लिख दूँ...
जो तुमने महसूस..
भी ना किया हो...


192.
यह फर्क था तुम में..
और मुझमें....
तुम मुझे...
दुनियादारी समझाते रहे...और
मुझे सिर्फ...
प्यार ही समझ आता था...

193.
मैं तुम्हारे खतो के जवाब...
के इंतजार में...
हर रोज इक नया...
खत लिखती हूँ...

194.
ठंडी हवाये है...
प्यार सा मौसम है...
बारिश है...बुँदे है....
तुम हो...मैं हूँ...
मैं हूँ..तुम हो..
मुझमे तुम हो..तुममे मैं हूँ...

195.
इन्टरनेट और मोबाइल की दुनिया में..भी...
मैं तुम्हे हर रोज खत लिखती हूँ...
तुम्हे भेज दूंगी इक दिन...
जो मैं कह नही पाती हूँ तुमसे...
खतो में वो सब लिखती हूँ....

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