Thursday 22 October 2015

मैं फिर कविता बन जाऊं...!!!

फिर इक बार..
तुम्हारे काँधे पर सर रख,
कर सो जाऊं...
बहुत थक गयी हूँ,
जिन्दगी की जद्दोजहद से,
कि अब और नही...
तुम जो सम्हाल लो..
तो सुकून पाऊं....
फिर इक बार...
तुम्हारी उँगली थाम कर चलना सीखूं,
अब मंजिल मुझे दिखती नही..
तुम जो चलो साथ मेरे,
तो मैं मंजिल पाऊं...
फिर इक बार...
मैं तुम्हारा आईना बन जाऊं...
कि मैं अब खुद को देखती नही हूँ...
तुम में खुद को देख लूँ,
तो फिर मैं सवंर जाऊं...
फिर इक बार.....
मैं शब्दों को गढ़ लूँ,
कि शब्द अब मिलते नही मुझे...
तुम जो पढ़ लो इक बार,
तो....मैं फिर कविता बन जाऊं...!!!

5 comments:

  1. "फिर इक बार..
    तुम्हारे काँधे पर सर रख,
    कर सो जाऊं..."
    सुन्दर पंक्ति| कविता बनने के लिए क्या किसी के हाथ की आवश्यकता है?

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  2. तथास्तु

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  3. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (24-10-2015) को "क्या रावण सचमुच मे मर गया" (चर्चा अंक-2139) (चर्चा अंक-2136) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  4. बहुत ही सुन्दर और बेहतरीन प्रस्तुति, आभार आपका।

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  5. बेहतरीन प्रस्तुति

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