तुझमे सिमटी सी ज़िन्दगी...
तुमसे शुरु....
तुम पर ही खत्म होती है....
दिन की शुरुवात...
तुम्हारी आखों के सपनो के,
साथ होती है...
दिन चढ़ते-चढ़ते....
तुम्हारी उलझनों को सुलझाने में,
उलझती जाती है...
शाम होते-होते...
तुम्हारे होटों पर...
मुस्कान लाने की कोशिश में ढलती है...
और रात होते-होते...
तुम्हारी पुरे दिन की,
थकान को दूर कर के...
तुम्हे सुकून की नींद...
देने में गुजरती है....
तुम्हे सुकून से सोते देख कर,
मेरी जिन्दगी के...
इक दिन के सफ़र को,
जैसे मंजिल मिल जाती है...
तुझमे सिमटी सी ज़िन्दगी...
तुमसे शुरु तुम पर ही खत्म होती है....
तुमसे शुरु....
तुम पर ही खत्म होती है....
दिन की शुरुवात...
तुम्हारी आखों के सपनो के,
साथ होती है...
दिन चढ़ते-चढ़ते....
तुम्हारी उलझनों को सुलझाने में,
उलझती जाती है...
शाम होते-होते...
तुम्हारे होटों पर...
मुस्कान लाने की कोशिश में ढलती है...
और रात होते-होते...
तुम्हारी पुरे दिन की,
थकान को दूर कर के...
तुम्हे सुकून की नींद...
देने में गुजरती है....
तुम्हे सुकून से सोते देख कर,
मेरी जिन्दगी के...
इक दिन के सफ़र को,
जैसे मंजिल मिल जाती है...
तुझमे सिमटी सी ज़िन्दगी...
तुमसे शुरु तुम पर ही खत्म होती है....
ReplyDeleteहृदयस्पर्शी भावपूर्ण प्रस्तुति.बहुत शानदार भावसंयोजन .आपको बधाई
कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.
bahut khoob
ReplyDeleteआपकी इस पोस्ट को शनिवार, ३० मई, २०१५ की बुलेटिन - "सोशल मीडिया आशिक़" में स्थान दिया गया है। कृपया बुलेटिन पर पधार कर अपनी टिप्पणी प्रदान करें। सादर....आभार और धन्यवाद।
ReplyDeleteआपकी इस पोस्ट को शनिवार, ३० मई, २०१५ की बुलेटिन - "सोशल मीडिया आशिक़" में स्थान दिया गया है। कृपया बुलेटिन पर पधार कर अपनी टिप्पणी प्रदान करें। सादर....आभार और धन्यवाद।
ReplyDeleteक्या ऐसी ज़िंदगी उचित है, कविताओं तक तो ठीक है लेकिन असल ज़िंदगी में अगर ज़िंदगी एक ही इंसान के इर्द-गिर्द सिमट जाये तो सोचने की ज़रूरत तो है....
ReplyDeleteकविता बेहतरीन है....
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteमन को छूते शब्द .....
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