सात फेरो का साथ मेरा तुम्हारा,
सातो वचन याद थे हम दोनों को,
तुम साथ-साथ चल भी रहे थे,
राहे एक थी हमारी,मंजिल के करीब भी थे हम...
कैसे तुम इतने निर्मोही हो गये,
छोड़ कर मझधार में साथ,
छोड़ कर चले गये...
मुझे गुमान था उन सात फेरो पर,
वचन दिया था तुमने मुझे,
मंजिल पर पहुचँगे हम साथ-साथ,
मुझे गुमान था कि...
तुम जब तक मेरे माथे पर सजते रहे,
मैं सारी दुनिया को हरा सकती थी,
तभीे तुम्हे जीत लिया था मैंने,...
फिर भी तुमने छोड़ा है साथ मेरा,
तुम भूल गए वो सात फेरे,..पर,
मैं अब तुम्हारे हिस्से के,
वचन भी निभाऊंगी....
छोड़ गए हो तुम जो अपने पीछे,
उनकी ढाल बन जाउंगी,
अभी तक थी सिर्फ मैं ममता की मूरत,
अब पत्थर भी बन जाऊंगी...
तुम इंतजार करना मेरा,
मैं तुम्हारी जिम्मेदारियां पूरी करके,
तुमसे उन सात फेरो का,
हिसाब करने आऊंगी....!!!
Tuesday 30 August 2016
सात फेरे....!!!
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समय के साथ कितना बदलना होगा हमें इसका आभास जब होता तो मन को बड़ी पीड़ा होती हैं ....
ReplyDeleteबहुत सुन्दर...
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरूवार (01-09-2016) को "अनुशासन के अनुशीलन" (चर्चा अंक-2452) पर भी होगी।
ReplyDelete--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
wah ! shushma ji ....bahut sundar bhav
ReplyDeleteजय मां हाटेशवरी...
ReplyDeleteअनेक रचनाएं पढ़ी...
पर आप की रचना पसंद आयी...
हम चाहते हैं इसे अधिक से अधिक लोग पढ़ें...
इस लिये आप की रचना...
दिनांक 02/09/2016 को
पांच लिंकों का आनंद
पर लिंक की गयी है...
इस प्रस्तुति में आप भी सादर आमंत्रित है।