मेरी डायरी से....
अचानक से गिरे तुम्हारे खत,
एकटक जैसे मुझे देखते रहे,
खतो में लिखे तुम्हारे लफ्ज़,
बिना खुले जैसे मुझे पुकारते रहे,
मैं तुम्हे पढ़ लूँ,जी लूँ उन लम्हो को,
जो तुमने मुझे इन खतो में भेजे थे....
पर ना जाने क्यों आज भी,
मैं नही पढूंगी....
यूँ ही मोड़ कर खतो को रख दूंगी,
उसी डायरी में....
इस इन्तजार में....
कि इक दिन तुम आओगे,
इन खतो को पढोगे...
और मैं तुम्हे जी लुंगी......!!!
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "१०८ वीं जयंती पर अमर शहीद राजगुरु जी को नमन “ , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteबेचारे खतों ने जाने क्या खता की थी कि कोई उन्हें पढ़े जाने के इंतज़ार में पथरा गया और कोई "सुने जाने" के इंतज़ार में.
ReplyDelete"उन्हें ये जिद थी कि हम बुलाते, हमें ये उम्मीद वो पुकारें
हैं नाम होठों पे अब भी लेकिन, आवाज़ में पड़ गयी दरारें!"
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अच्छी रचना!
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 25 - 08 - 2016 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2445 {आंतकवाद कट्टरता का मुरब्बा है } में दिया जाएगा |
ReplyDeleteधन्यवाद
उम्मीद ही तो प्यार का आलम्ब है । सुंदर।
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