मैंने आज खुद को किताबो के,
बाजार में देखा,
मोल मिल गया उन शब्दों को,
जो मेरे लिए अनमोल थे,
सभी पढ़ रहे है तुमको,
इक सिवा तुम्हारे,सभी जानते है,
तुमको,इक तुम्ही अंजान रहे...
मेरे इक-इक शब्द में,
इक-इक पंक्ति में,
सभी अपने प्रिय की,
तस्वीर खीचते है,
जो सिर्फ और सिर्फ,
तुम्हारे लिए थी,उन रचनाओं को,
सभी अपनी-अपनी पंक्ति मानते है...
मैं अब मैं ना रही,
मुझे अब कहाँ लोग,
पहचानते है,तुमको ही पढ़ते है,
तुम्ही से अब मुझे,
सभी जानते है...
कभी फुरसत हो,
तो पूछ लेना किसी से "आहुति"को..
कह देंगे वो भी,
कि वो भी खूब है
वो जिसे "आहुति"लिखती है...!!!
Monday, 9 January 2017
'आहुति"लिखती है...!!!
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आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 11 जनवरी 2017 को लिंक की गई है.... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteआहूति का मन्तव्य सार्थक हो। मार्मिक रचना। बधाई!
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बृहस्पतिवार (12-01-2017) को "अफ़साने और भी हैं" (चर्चा अंक-2579) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सच में -शब्द के रूप में व्याप्त हो गईँ आप .
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