इक नदी जब चलती है,
तो सागर में गिरेगी यही,
उसकी नियति होती है,
सागर ही उसकी मंजिल होती है...
यही पढ़ती आयी थी,देखती आयी हूँ...
मुझे मंजिल नही मिली....क्यों कि,
मैं चली तो नदी की तरह ही थी,
पर सागर में मैं गिरी नही,
सागर के साथ चलना तय किया....
कि आज तक सफर में हूँ...!!!
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 05-01-2017 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2576 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
बहुत खुब..
ReplyDeleteNice
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