उस रोज बगीचे में...
गुलमोहर के पेड़ के नीचे,
जब तुम अपना सर मेरी गोद में,
रख कर लेटे ना जाने आसमान में,
गुम कुछ ढूंढ रहे थे...
तब मैं जमी पर अपनी,
इक छोटी सी दुनिया की,
तस्वीर खीच रही थी...
जब तुम उस पल अपनी मंजिले,
अपने सफर,अपने सपने देख रहे थे..
तब ही मैं हम पर झरते,
उन गुलमोहर के फूलों को,
शुक्रिया कर कह रही थी...
जब तुम आसमान की उच्चाईयां छूने को,
सीढ़ियां बना रहे थे,
तब ही मैं तुम पर छुक कर तुम्हारे मस्तक पर,
अपने होठो का स्पर्श दे कर,
आसमान में उड़ रही थी...
तभी तुम अचानक से उठे,
और कहने लगे बहुत हो गया,
अब मैं चलता हूँ,और भी काम है...
तुम इस तरह कहते देख ,
मैं कुछ नही कह पायी,
क्या कहती कि...
गर तुम यूँ ही...
मेरी गोद में लेटे रहते तो,
मुझे जिंदगी से और,
कुछ चाईए ही नही था..
फिर तुम अपनी मंजिलो,
की तरफ बढ़ गए,
और मैं हम पर झरते गुलमोहर के,
फूलों को समेटती रही,
क्यों मेरे पास,
तुम्हे संजोने से जरुरी,
कोई काम नही था......!!!
Thursday, 19 January 2017
झरते गुलमोहर.....
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आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज रविवार (22-01-2017) को "क्या हम सब कुछ बांटेंगे" (चर्चा अंक-2583) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
too nice. lovely.
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