Sunday 2 October 2016

अधूरी सी रह गयी हूँ....!

आज यूँ रोजमर्रा के काम करते-करते,
अलमारी की दराज़ में छिपाई,
डायरी अचानक से गिर गई,
साथ ही कुछ फूल,कुछ खत,
कुछ अधलिखी पंक्तिया,
कुछ ख्वाब गिर गये...
कितने ही सालों से,
इन्हें छिपा कर रखा था,
आज ऐसे बिखर गये मेरे सामने,
कि मेरे सामने,मेरा वजूद बिखर गया हो...
जब मैं तुम्हारे साथ इस घर में आयी थी,
तो ये डायरी..
कुछ यादे ले कर आयी थी,
सोचा था कि खूब लिखूंगी..
पर जिंदगी की आपाधापी में,
सब भूल गयी..
तुम्हे क्या पसंद है,तुम क्या चाहते हो,
तुमको कैसे खुश रखूं,
बस तुम ही तुम रह गये,
मैं तो इस डायरी में,
कही गुम सी हो गयी...
ऐसा नही कि...
तुमसे कोई शिकायत हो,
तुमने मुझे बहुत कुछ दिया..
पर क्या ये वही था,जो मैं चाहती थी,
या वो जो तुम चाहते थे...
तुम्हे भी तो मेरी कविताएं ही पसंद थी,
फिर तुमने कभी क्यों नही पूछा,
कि मैं अब क्यों नही लिखती हूँ,
तुमने अब क्यों कुछ सुनने की जिद नही की,
शायद मेरी तरह तुम भी भूल गये थे...
आज ना जाने क्यों,
अपनी अधलिखी पंक्ति पढ़ कर लगता है,
कि मैं भी यूँ ही अधूरी सी रह गयी हूँ....!

1 comment:

  1. जय मां हाटेशवरी...
    अनेक रचनाएं पढ़ी...
    पर आप की रचना पसंद आयी...
    हम चाहते हैं इसे अधिक से अधिक लोग पढ़ें...
    इस लिये आप की रचना...
    दिनांक 04/10/2016 को
    पांच लिंकों का आनंद
    पर लिंक की गयी है...
    इस प्रस्तुति में आप भी सादर आमंत्रित है।

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