तुम जब शब्द बन कर,
मेरी कविताओं में उतरते हो,
मेरे जहन की गहराइयों से गुजरते हो......
तुम जब भी बारिश की बुँदे,
बन कर मुझ पर बरसते हो,
भीगे हुए लफ़्ज़ों में...
मेरी कविताओ में उतरते हो,..
तुम जब कभी पुरवाई के ठन्डे झोकों में,
मुझे छु कर गुजरते हो,
ठिठुरते एहसासो से,
मेरी कविताओ में उतरते हो..
तुम जब कभी पूरनमासी के चाँद बन कर,
मुझे देखते हो...
इठलाते-झिझकते अंदाज़ से,
मेरी कविताओ में उतरते हो....
तुम जब कभी अमावस्य की रातो में,
मुझे ढूंढ़ते हो...
जुगनुओं की तरह,
मेरी कविताओं में उतरते हो....
तुम जब कभी...
सूरज की पहली किरण बन कर,
मेरी पलको को चूमते हो,
सर्दियों की खिली धुप से..
मेरी कविताओं में उतरते हो....
तुम जब कभी....
मेरी कविताओं को पढ़ते हो,
मेरी खामोशिया 'तुम' बन कर,
मेरे कागज़ों पर उतरती है..
तुम जब शब्द बन कर,
मेरी कविताओं में उतरते हो,
मेरे जहन की गहराइयों से गुजरते हो......
Tuesday, 12 July 2016
मेरी कविताओं में उतरते हो....!!!
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आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 14-07-2016 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2403 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
तुम जब शब्द बन कर,
ReplyDeleteमेरी कविताओं में उतरते हो,
"तुम जब कभी....
ReplyDeleteमेरी कविताओं को पढ़ते हो,
मेरी खामोशिया 'तुम' बन कर,
मेरे कागज़ों पर उतरती है.." wahh bahut sundar rachna.