वो चाँद की रात,वो तुम्हारी बाते...
तुम कुछ भी कहते मैं लिख रही थी,
तुम को शब्दों में बांध रही थी..
और तुम नाराज भी होते कि,
क्यों लिख रही हूँ मैं...
मैं हर बार कहती कि,
तुम्हे अपने पास संजो कर रख रही हूँ...
और हसँ कर कह देते कि,
तुम बिलकुल पगली हो....
और मैं भी मान लेती की,
हाँ मैं पागल ही सही...
जब तुम बाते करते थे ना,
तुम्हे सुनने चाँद की चांदनी भी,
नंगे पाँव जमी उतर आती थी..
मुझे बिलकुल भी अच्छा नही लगता कि,
तुम्हे कोई भी सुने..
तो मैं तुम्हारी बातो को,
हमेशा के लिए अपने शब्दों में...
बाँध लेती थी...
आज भी वो चाँद की रात है,
वही चांदनी है...
वही तुम्हारी बाते तो है,
मैं आज भी पगली सी हूँ वैसे ही...
पर तुम नही हो...!!!
Sunday, 6 November 2016
मैं आज भी पगली सी हूँ....!!!
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bahut sundar...
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