चलो गुर तुम्हे लिखने के सीखा देती हूँ....
तुम कागज़ कलम ले के,
साथ बैठो तो मेरे,
मैं एहसास तुम्हे,
जीने के बता देती हूँ..
चलो गुर तुम्हे लिखने के सीखा देती हूँ....
कुछ देर मेरी आँखों में,
अपलक देखो तुम जरा,
तुम्हे आँखों को पढ़ना सीखा देती हूँ..
चलो तुम्हे गुर लिखने के सीखा देती हूँ...
कोई रात मेरे साथ...
चाँद को निहारते गुजारो जो तुम,
तुम्हे चाँद की खूबसूरती के,
राज बता देती हूँ...
चलो तुम्हे गुर लिखने के सीखा देती हूँ...
कभी कोई ढलती शाम,
जो तुम्हारे काँधे पर सर रख कर गुजारूं,
तो तुम्हारे धड़कनो के,
राज तुम्हे बता देती हूँ...
चलो तुम्हे लिखने के गुर सीखा देती हूँ....
कभी जो किसी बारिश में,
भीगो जो मेरे साथ....
मैं तुम्हे हमें भिगोती बूंदों की,
साजिशे बता देती हूँ...
चलो तुम्हे गुर लिखने के सीखा देती हूँ...!!!
Friday, 1 April 2016
चलो गुर तुम्हे लिखने के सीखा देती हूँ....!!!
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आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (02-04-2016) को "फर्ज और कर्ज" (चर्चा अंक-2300) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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मूर्ख दिवस की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बढ़िया रचना
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteBahut Sunder Kavitayen.
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