क्यों ना कभी तुम चुपके से पीछे से आकर,
अपनी हथेलिया मेरी पलकों पर रख दो,
फिर पूछो की कौन हूँ मैं,
और मैं तुम्हारी हथेलियों के,
एहसास से जान कर भी,
अनजान बन जाऊं और,
तुम्हारा नाम छोड़ कर,
कितने ही नाम तुम्हे गिना दूँ,
फिर तुम नाराज हो जाओ..
और मैं प्यार से कहूँ,
कि क्या तुम्हारे सिवा कोई और,
मेरी पलको पर बंद कर सकता है कोई,
तुम खुद एहसास बन कर,
मुझमे रहते हो....
फिर पूछते हो कौन हूँ मैं....
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (09-04-2016) को "नूतन सम्वत्सर आया है" (चर्चा अंक-2307) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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चैत्र नवरात्रों की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुंदर प्रस्तुति।
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