107-
कभी गुजरी थी जो इक शाम तुम्हारे साथ..
वो शाम तो गुजर गयी....
पर जिन्दगी उस शाम ठहर गयी थी....
108-
नही याद की चाय और कॉफ़ी का स्वाद क्या था...
सिर्फ ये याद रह गया....
कि उस शख्स की आखों में क्या-क्या था......
109-
तुम एहसास हो जिसे शब्दों में बांध कर..
मैं कविता बनाती हूँ...
मुझमे जब तुमको पढ़ते है लोग...
तब मैं कविता बन जाती हूँ.....
110-
खुद को बंद कर आयी हूँ..
किन्ही गुज़रे पलों के दरवाजों में....
खुद को खोने के बाद....
खुद को तलाश कर रही हूँ...
दूसरों के एहसासों में.....
111-
वो तुम्हारे सांसो की गर्म तपिश..
वो तुम्हारे धडकनों की आवाज़..
.वो दूर तक फैली ख़ामोशी...
वो रात का गहराता राज..
ना जाने कब हो गया सवेरा...
कि जैसे मैं देख रही थी कोई ख्वाब......!!!
सार्थक प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (04-01-2015) को "एक और वर्ष बीत गया..." (चर्चा-1848) पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
नव वर्ष-2015 की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सार्थक प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (04-01-2015) को "एक और वर्ष बीत गया..." (चर्चा-1848) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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नव वर्ष-2015 की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुंदर
ReplyDeleteनही याद की चाय और कॉफ़ी का स्वाद क्या था...
ReplyDeleteसिर्फ ये याद रह गया....
कि उस शख्स की आखों में क्या-क्या था......
बहुत ही सुन्दर भावों को पंखुरियाँ ,अच्छी रचना हेतु सुषमा जी आप का आभार