Wednesday, 18 May 2016

मैं खुद कविता बन जाऊं....!!!

क्यों ना मैं इक चित्रकार बन जाऊं,
तुम्हारी तस्वीर बनाऊं और,
रंग तुम्हारी जिंदगी में भरती जाऊं....
वो रंग जो तुमने कही,
बचपन में खो दिये है...
वो रंग तुम्हारी आखों में छिपे है..
सभी रंग तुम्हारी तस्वीर पर सजाऊँ,
रंगो सी रंगीन होती है जिंदगी,
तुम मिलो तो तुम्हे बताऊँ..
क्यों ना मैं कोई वाद्ययंत्र बजाऊं,
पियोनो की की बोर्ड पर,
तुम्हारी नाम की धुन बजाऊं,
बाँसुरी पर गीत सारे,
तुम्हारी पसंद के सुनाऊँ...
वो गीत जो तुम गुनगुनाते थे बचपन में,
वो धुन जिस पर...
कभी भी यूँ  झूम जाते थे..
तुम मिलो तो तुम्हे,
वो धुनें सारी वो गीत तुम्हारे,
जिंदगी इन्ही में कही,
तुम्हे याद दिलाऊं....
क्यों ना मैं कोई कवि बन जाऊं,
तुम्हारी कल्पनाओ को देकर शब्द,
मैं तुम्हारे प्यार के,
आसमान में उड़ जाऊं,
तुम्हारी भावनाओं और एहसासों को पिरो दूँ..
तुम मिलो तो खुद को पढ़ लो मुझमे...
मैं खुद कविता बन जाऊं....!!!

4 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (20-05-2016) को "राजशाही से लोकतंत्र तक" (चर्चा अंक-2348) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. बहुत सुंदर ़़़़़़़़़

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  4. "तुम्हारी कल्पनाओ को देकर शब्द,
    मैं तुम्हारे प्यार के,
    आसमान में उड़ जाऊं,"
    बहुत सुंदर !!

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