Sunday, 31 May 2015

तुम्हे ख़त लिखना..अच्छा लगता है...!!!

ना जाने क्यों तुम साथ हो,
पास भी हो...फिर भी..
तुम्हे ख़त लिखना..
अच्छा लगता है...
मुमकिन है कि...
तुम्हे सामने बिठा कर,
हाथो में हाथ ले कर..
मैं सारी बाते तुमसे कह दूँ...
न जाने क्यों तुमसे,
छुप कर...तुम्हे ख़त लिखना,
अच्छा लगता है....
बेशक मैं ख़त में...
सारी बाते लिख कर...
तुम्हे अपने हाथो से मैं दे दूँ...
फिर भी ना जाने क्यो...
मैं तुम्हारी रोज मर्रा...
चीजो में ख़त को छुपाती हूँ...
कि तुम्हे अचानक से,
मेरा ख़त मिले.....
ना जाने क्यों तुम्हे....
इस तरह ख़त देना अच्छा लगता है....
मैं तुम्हे खतो मे...
गुजरी शामो को लिखती हूँ,
गहरी रातो को लिखती हूँ...
हमारे बीच वो पहला एहसास..
प्यार का कभी भूले ना...
मुझे खतो में हमारे गुजरे पलो,
को वापस लाना अच्छा  लगता है....
तुम्हे ख़त लिखना..
अच्छा लगता है...!!!

Thursday, 28 May 2015

तुझमे सिमटी सी ज़िन्दगी...!!!

तुझमे सिमटी सी ज़िन्दगी...
तुमसे शुरु....
तुम पर ही खत्म होती है....
दिन की शुरुवात...
तुम्हारी आखों के सपनो के,
साथ होती है...
दिन चढ़ते-चढ़ते....
तुम्हारी उलझनों को सुलझाने में,
उलझती जाती है...
शाम होते-होते...
तुम्हारे होटों पर...
मुस्कान लाने की कोशिश में ढलती है...
और रात होते-होते...
तुम्हारी पुरे दिन की,
थकान को दूर कर के...
तुम्हे सुकून की नींद...
देने में गुजरती है....
तुम्हे सुकून से सोते देख कर,
मेरी जिन्दगी के...
इक दिन के सफ़र को,
जैसे मंजिल मिल जाती है...
तुझमे सिमटी सी ज़िन्दगी...
तुमसे शुरु तुम पर ही खत्म होती है....

Saturday, 9 May 2015

मैं अपना लिखा,तुमसे सुनना चाहती थी.....!!!

मैं अपना लिखा तुमसे,
सुनना चाहती थी...
अपने शब्दों में तो पिरोया था मैंने,
अब तुम्हारी आवाज़ में,
बुनना चाहती थी....
मैं अपना लिखा तुमसे,
सुनना चाहती थी....
मुझे पता था कि...
कविताओं में पहले तुम्हारा,
कोई iterest नही रहा पर जब,
मैं तुम्हे अपनी कविताओ,
को सुनाती थी..
तुम मेरा मन रखने के लिये,
उन्हें बहुत मन से सुनते थे....
फिर भी....मैं जब भी कुछ लिखती,
तुम्हे पढ़ कर सुनाती थी,
मैं जानती थी कि...
मैं जबरदस्ती तुम्हे सुना रही हूँ..
पर जब तुम...
मेरी कविताओं को पढ़ते थे,
और पढ़ते वक़्त,
तुम्हे चहेरे पर इतराते भाव,
आखों में वो चमक,
होटों की रहस्यमयी मुस्कान..
कि जैसे...
मेरी कविताओं की हर पंक्ति,
सिर्फ तुम्हारे लिये ही है...
उस पल.....
मैं तुम्हारी छवि अपनी आखों में,
कैद कर लेना चाहती थी...
न जाने क्यों..
मैं अपना लिखा,
तुमसे सुनना चाहती थी.....!!!

Friday, 8 May 2015

कुछ बिखरी पंखुड़ियां.....!!! भाग-16

136-
तुम मुझे जीतने की,
इक कोशिश तो करो...
मैं तो खुद को पहले ही,
हार चुकी हूँ...

137-
मैं तुम्हे अपनी पंक्तियों में पिरोती रही...
तुम मेरे शब्दों में बिखरते रहे..

138-
तुमसे पहले मेरी कविताओं में...
सब कुछ था...पर प्यार नही था...

138-
ऐसा नही है कि तुम्हारे दर्द से,
मुझे वास्ता नही है...
बस...ये मैंने कहा नही है..

139-
तुम कही भी रहो....
मेरी लिखी पक्तियाँ जब भी सुनोगे...
वो तुम्हारी अपनी ही लगेंगी....

140-
तुम्हारी मुस्कानों पर...
मैं सब कुछ वारी जाऊं...
तुम इक बार मुझे अपना मानो,
मैं तुम्हारी हो जाऊं....

141-
लोग क्या समझंगे...
मेरी मुस्कराहटो को..
हमने आखों की नमी की छिपायी है..
इन्ही मुस्कानों के पीछे...

142-
कभी यूँ भी तो हो....
मैं तुम्हे सोचूँ और,
तुम भी मुझे याद कर लो....

143-
मेरी सारी उपलब्धियां तुम्हारी है......

144-
क्या हिसाब लगाती ..
कि तुमने मुझे क्या दिया है?
मैं तो उलझी रही...
कि तुम्हे पाने के लिये..
मैंने क्या-क्या खो दिया है.....

145-
तुम्हारे कांधे पर सर रख कर...
जो मैंने आँखे बंद की थी...
उस इक लम्हे में...
पूरी इक जिन्दगी जी थी....

Thursday, 7 May 2015

शब्द ही नही थे.....!!!

आज शब्दों को समेटते हुए,
पूछती हूँ....
अपने शब्दों से,
कि ये मुझे सम्हालते है...
या अपने शब्दों में....
बिखेर देते है....
गर मेरे साथ है तो....क्यों...
कई मोड़ पर,
ये मुझे तन्हा छोड़ देते है.....
कोई जवाब नही दिया,
मेरे शब्दों ने...
या यूँ कहूँ जो जवाब था....
उसके लिये मेरे शब्दों के पास भी,
शब्द ही नही थे.....

Tuesday, 5 May 2015

तुम्हे शिकायते बहुत हो गयी मुझसे....!!!

तुम्हे शिकायते बहुत हो गयी मुझसे....
जो मुस्कराहट मेरी,
तुम्हारे होटों पर मुस्कान लाती थी...
वही आज...
तुम्हे अच्छी नही लगती है....
तुम्हे शिकायते बहुत हो गयी है मुझसे....
जो मेरी बकबक..
तुम्हे  दुनिया की उलझनों,
को भुला देती थी...
वही आज मेरा बोलना भी,
तुम्हे अखरता है...
तुम्हे शिकायते बहुत हो गयी है मुझसे....
जिन आखों में मुझे
अपने लिये प्यार दिखता था...
अब वो मुझ पर गुस्सा करती है....
तुम्हे शिकायते बहुत हो गयी है मुझसे....
जिन हाथों का स्पर्श,
मुझे अपनेपन एहसास दिलाता था,
वो अब बस मुझ पर,
डराने के लिये उठते है...
तुम्हे शिकायते बहुत हो गयी है मुझसे.....
जिन शामो को तुम मेरे साथ,
गुजारने के लिये बेचैन रहते थे,
वो शामे अब हमारे बीच,
आती ही नही है...
तुम्हे शिकायते बहुत हो गयी है मुझसे....
जिन छोटे-छोटे पलों को जी कर,
जिनमे तुम जिन्दगी भर..
के सपने सजाते थे..
वो पल अब तुम्हारे,
सपने में भी नही आते है....
तुम्हे शिकायते बहुत हो गयी है मुझसे....
इतनी शिकायतों के साथ भी,
मुझे तुम्हारा साथ ही चहिये...
मैं हर पल तुम्हारी,
कुछ पलो का गुस्सा..
समझ कर भूलती रही हूँ...
हर पल हर लम्हा,
तुम्हे जैसे मैं पसंद हूँ..
वैसे ही खुद को बनाती रही....
मैं खुद को तो खो सकती थी,
पर तुम्हे खोना मुझे मंजूर नही था...
तुम्हारा साथ देने का वादा है...मेरा...
तुम्हारी शिकायतों के साथ,
भी निभाती रही हूँ....
तुम्हारी शिकायते मंजूर है,
सिर्फ तुम मेरे टूट कर,
बिखरने से पहले,
मुझको सम्हाल लेना...
मुझे कोई शिकायत नही है तुमसे...!!!