कभी निकल जाऊं में किसी ऐसे सफर पर..
जिसकी राहो का मुझे पता ना हो...
कही बैठ जाऊं किसी अनजाने के साथ,
कह दूं सारी मन की बाते...
जो मुझे जानता ना हो...
समझने समझाने से परे,
ना ही किसी से शिकायत हो...
बस हर राह से गुजर जाऊं,
वही शून्य की तलाश में जहां से मैं शुरू हुई थी....
वही शून्य जिसमे सांसे जुड़ती गयी..
और मैं जिंदगी के गणित में उलझती चली गयी...
मैं खुद को कही छोड़ दूं, ये जिंदगी के जोड़-घटाना में,
सब कुछ घटा कर...खुद को खाली कर दूं....
और निकल जाऊं किसी ऐसे सफर पर,
जिसकी राहो का मुझे पता ना हो..